________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-6-2 (99) 173 के अर्थात् सभी सावद्य-पापाचरण के आरंभ की निवृत्ति स्वरूप संयम का स्वीकार करके पाप के कारण ऐसे कर्म याने सावध क्रियाओं को स्वयं न करें... अन्य से न करवायें, और पापकर्म करनेवाले अन्य की अनुमोदना मन से भी न करें..." प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशून्य, परपरिवाद, रतिअरति, मायामृषावाद और मिथ्यादर्शनशल्य स्वरूप अट्ठारह (18) प्रकार के पाप-कर्मो को मन-वचन-काया से स्वयं न करें, अन्य से न करवायें और ऐसे पापकर्म करनेवाले अन्य की अनुमोदना भी न करें यह यहां इस सूत्र का भावार्थ है... प्रश्न- क्या प्राणातिपातादिक में से कोई एक पापकर्म को करनेवाले को क्या अन्य पापकर्म भी आ जातें हैं या नहिं ? उत्तर- इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : पांचवें उद्देशक में यह बताया गया है कि- संयम का सम्यक्तया परिपालन करने के लिए आहार आदि का ग्रहण करे, परन्तु उसमें आसक्त नहीं बने। प्रस्तुत उद्देशक में भी मुख्यतया इसी बात का वर्णन किया गया है, कि- मुनि को आहार आदि में मूर्छा भाव नहीं रखना चाहिए। पंचम उद्देशक के अन्तिम सूत्र में यह कह चुके हैं, कि- काम चिकित्सा एवं व्याधि चिकित्सा अनेक दोषों से युक्त है। उसमें अनेक प्राणियों की हिंसा होती है अतः उस से साधु जीवन में अनेक दोषों को प्रविष्ट होने की संभावना रहती है। अतः एवं साधु को उसके दुष्परिणाम को जानकर ज्ञान, दर्शन और चारित्र में प्रवृत्ति करते हुए समस्त पाप कार्यो से बचकर रहना चाहिए। साधु स्वयं कोई भी पापकर्म न करे एवं अन्य व्यक्ति के द्वारा भी पापकर्म करावे... क्योंकि- इससे उसके महाव्रतो में दोष लगता है। पांचों महाव्रतों का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध रहा हुआ है। एक में दोष लगने पर . दूसरा दूषित हुए बिना नहीं रहता। इसी बात को अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 99 // 1-2-6-2 सिया तत्थ एगयरं विपरामुसइ छसु अण्णयरंपि कप्पइ सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ, सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसिमे पाणा पव्वहिया, पडिलेहाए नो निकरणयाए, एस परिण्णा पवुच्चइ, कम्मोवसंती // 99 //