________________ 172 1 - 2 - 6 - 1 (98) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 2 उद्देशक - 6 म अममत्वम् // पांचवा उद्देशक पूर्ण हुआ... अब छठ्ठा उद्देशक आरंभ करते हैं... इन दोनों में परस्पर संबंध इस प्रकार है- संयम और देह की यात्रा याने पालन करने के लिये साधु- “लोक का अनुसरण करे किंतु नहिं पर भी ममत्व भाव न करें" यह बात जो उद्देशार्थाधिकार में कही थी वह अब इस छठे उद्देशक में कहतें हैं... तथा पूर्व के सूत्र में कहा था कि- काम चिकित्सा अणगार को कल्पती नहि है... वह बात अब यहां आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 1 // // 98 // 1-2-6-1 से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा, न कारवेज्जा // 98 // II संस्कृत-छाया : सः तत् सम्बुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय, तस्मात् पापकर्म नैव कुर्यात् न कारयेत् // 98 // III सूत्रार्थ : कामचिकित्सा के पाप-कार्यों को जाननेवाला वह साधु अच्छी तरह से संयमानुष्ठान में रहकर पापकर्म स्वयं न करें और अन्य से न करवायें... // 98 // IV टीका-अनुवाद : जो अणगार (साधु) पूवोक्त कामचिकित्सा नहि करता है वह हि सच्चा अणगार है... अतः कहतें हैं कि- जीवों के उपघात को करनेवाली कामचिकित्सा का उपदेश और चिकित्सा के पाप को अच्छी तरह से जाननेवाले साधु-अणगार ज्ञ परिज्ञा से उन्हे जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका त्याग करता हुआ और ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप पारमार्थिक भाव आदानीय संयम को अच्छी तरह से ग्रहण करके- अथवा मोक्ष का कारण यह ज्ञानादि है ऐसा जानकर अच्छी तरह से संयम के अनुष्ठानों के द्वारा संसारभाव से उठ कर- अब मुझे यह पापाचरण स्वरूप सावद्य अनुष्ठान नहि करना चाहिये “इस प्रकार की परिज्ञा स्वरूप मेरु-पर्वत पे चढकर