________________ 136 1-2-4 - 4 (87) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन की आकांक्षा, लालसा का भी भोगेच्छा में समावेश किया गया है। अत: इसका तात्पर्य यह है कि- पदार्थों में आसक्त होना, ममत्व भाव रखना यह हि भोग है और यह लोककहावत प्रसिद्ध है कि "भोग रोग का घर है।" यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है कि- कामभोग महारोग के उत्पादक हैं। उनसे वर्तमान जीवन में अनेक रोगों एवं दुःखों का संवेदन करना पड़ता है तथा भविष्य में विभिन्न नरकादि की योनियों में अनेक कष्टों को भोगना पड़ता है। आगमों का यह कथन नितान्त सत्य है कि- “खणमित्त सुक्खा बहु काल दुक्खा' अर्थात् काम-भोग क्षणिक आभासिक सुख रूप प्रतीत होते हैं, और अनंतकालीन दुःख के हेतु बनतें हैं, अतः साधक को भोगों में आसक्त नहीं होना चाहिए। यहां तक कि- शरीर निर्वाह के लिए स्वीकार कीये जाने वाले आहार, वस्त्र-पात्र आदि साधनों में भी आसक्त नहीं रहना चाहिए और इनके लिए किसी भी प्राणी को मानसिक; शाब्दिक और शारीरिक कष्ट भी नहिं पहुंचाना चाहिए। यदि मुनि किसी गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए गया, वहां उसे अपनी विधि के अनुसार आहार आदि उपलब्ध नहीं हुआ या गृहस्थ ने उसे आहार आदि दिया नहीं या किसी गृहस्थ ने उसे थोड़ा सा आहार दिया या किसी ने अपने घर से खाली हाथ ही लौट जाने के लिए कह दिया। इस प्रकार के अनेक विकल्पों उपस्थित होने पर भी साधु अपनी धैर्यता एवं उपशान्त भावना का परित्याग न करें, तथा संकल्प-विकल्प के जाल में उलझ न जाए। चाहे जैसी स्थिति-परिस्थिति क्यों न उत्पन्न हो, पर साधक को प्रत्येक परिस्थिति में सदासर्वदा समभाव रखना चाहिए गृहस्थ के न देने पर, उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए और थोड़ा देने पर उसकी निन्दा भी नहीं करनी चाहिए और उसके इन्कार कर देने पर उसके घर में नहीं ठहरना चाहिए और न दीनता के भाव प्रकट करने चाहिए। क्योंकि- साधु आहार आदि पदार्थों का उपभोग केवल संयम साधना के लिए हि करता है, न कि- पदार्थों का स्वाद चखने के लिए। अत: उसे जिस समय संयम के अनुकूल जैसा भी पदार्थ मिल जाए उसमें सन्तोष करना चाहिए और यदि कभी परिस्थिति वश पदार्थों का संयोग न मिले, तो उसे सहज ही तप का सुअवसर समझकर सन्तोष करना चाहिए। परन्तु उन पदार्थों में आसक्त हो कर संयम की साधना में विपरीत आचरण नहीं करना चाहिए। इस प्रकार भोगों की आसक्ति से दूर रहने वाला मुनि हि इन्द्रादि के द्वारा प्रशंसनीय होता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'महब्भयं' शब्द आत्म विकास की साधना में प्रवर्तमान व्यक्ति के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इस शब्द से यह अभिव्यक्त किया है कि- विषयभोग में आसक्त व्यक्ति सदा-सर्वदा भयभीत रहते हैं। भौतिक शक्ति एवं धन-वैभव से संपन्न होने पर भी वे निर्भयता के साथ नहीं घूम-फिर सकते। जितने भौतिक साधन अधिक होंगे उन्हें उतना ही अधिक भय होगा। इससे स्पष्ट होता है कि- विषय-भोग भय में अभिवृद्धि करने वाले