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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 4 - 3 (86) 131 न करने में मात्र दु:खों की हि प्राप्ति होती है, अतः हे शिष्य ! (उपदेश योग्य आत्मा) तुं हि भोगोपभोग की आशा स्वरूप शल्य का स्वीकार करके अतिशय अशुभ-पाप को हि ग्रहण करता है, उपभोग को नहिं... क्योंकि- धन आदि उपायों से भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त होती है, किंतु उनसे भोग-उपभोग का सामर्थ्य नहि मिलता... क्योंकि- कर्मो के परिणाम विचित्र प्रकार के हैं... अथवा जिस कोइ हेतु से कर्मबंध होता है, उन हेतुओं का आदर न करें... . राज्य के उपभोग आदि से कर्मबंध होता है, और निपॅथत्व आदि से मोक्ष होता है, यह बात अनुभव से जानते हुए भी प्राणी मोहाधीन होकर समझतें नहिं हैं... ऐसे कौन है ? तो अब कहते हैं कि- जो लोग मुनीश्वर के उपदेश से विकल (रहित) हैं, मोह याने अज्ञान अथवा मिथ्यात्व के उदय से आच्छादित हैं... क्योंकि- मोहनीयकर्म के उदय से हि तत्त्व से विपरीत बुद्धि होती है... तथा मोहनीय कर्म का एवं मोह के भेद-प्रभेद स्वरूप काम का महान् कारण स्त्रीयां हि है... वह इस प्रकार- भ्रूकुटी का विक्षेप (आंख मारना) इत्यादि विभ्रम याने विलास वाली स्त्रीओं की आशा एवं इच्छा से परवश और क्रूर कर्मों को करनेवाला यह मनुष्य नरक के विपाक स्वरूप फलवाले शल्य को ग्रहण करके और उसके फल को नहि जाननेवाला मोहाच्छादित यह आत्मा अतिशय व्यथित है... वे मात्र स्वयं हि पीडित नहिं है, किंतु अन्य लोगों को भी जुठी बाते कहकर उनको भी दुःखी करतें हैं... वह इस प्रकार- स्त्रीयों से पीडित वे लोग अन्यजनों को कहते हैं कि- भोः ! हे लोगों ! यह स्त्री आदि उपभोग के स्थान = मंदिर है, उनके बिना शरीर की स्थिति हि हो नहि शकती... किंतु यह पीडा अथवा ऐसी बातें उनके अपाय याने संकट के लिये हि होते हैं... यह बात अब कहते हैं... यह व्यथा अथवा आयतन का कथन उनके दुःख याने शारीरिक एवं मानसिक असाता के उदय के लिये होता है, मोह याने मोहनीय कर्म के बंधके लिये अथवा अज्ञान के लिये होता है तथा मार याने मरण के लिये होता है, नरक याने नरक में जानेके लिये होता है, तथा नरक से निकलकर तिर्यंचगति में जाने के लिये होता है... इस प्रकार स्त्रीओं के अंगोपांग को देखने में परवश बने हुए प्राणी विविध प्रकार की योनीओं में पर्यटन करते हुए आत्महित को समझ नहि पातें... यह बात अब कहतें हैं... सतत याने निरंतर दुःखों से पराभव पाया हुआ यह मूढ प्राणी दुर्गति से बचानेवाले क्षमा आदि लक्षणवाले धर्म को नहि जानतें... यह बात तीर्थंकर प्रभुने कही है... जिसका संसारभय दूर हो गया है वह वीर परमात्मा तीर्थंकर प्रभु अनुग्रहभाव से कहते हैं कि- स्त्रीओ के प्रति अनुराग .हि महामोह का कारण है, अतः ऐसे महामोह के प्रसंग में प्रमाद न करें... अप्रमत्त रहें... * कहते हैं कि- सूक्ष्म दृष्टिवाले कुशल निपुण साधु, मद्य विषय कषाय निद्रा और विकथा स्वरूप
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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