________________ 130 1 -2-4-3(86) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस तरह विषय-भोगों के कटु परिणाम को जान कर मुमुक्षु परुषों को धन में आसक्त नहीं होना चाहिए। यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 86 // 1-2-4-3 आसं च छंदं च विगिंच धीरे ! तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट, जेण सिया तेण नो सिया, इणमेव नावबुझंति जे जना मोहपाउडा, थीभि लोए पव्वहिए, ते भो ! वयंति एयाइं आययणाई, से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरगतिरिक्खाए, सययं मूढे धम्म नाभिजाणइ, उआहु वीरे, अप्पमाओ महामोहे, अलं कुसलस्स पमाएणं, संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, नालं पास, अलं ते एएहिं // 86 // II संस्कृत-छाया : आशां च छन्दं च वेविश्व, हे धीर ! त्वमेव तत् शल्यं आह्त्य, येन स्यात् तेन न स्यात्, इदमेव न अवबुध्यन्ते, ये जनाः मोहप्रावृत्ताः, स्त्रीभिः लोकः प्रव्यथितः, ते भोः! वदन्ति, एतानि आयतनानि, एतत् तस्य दुःखाय मोहाय, मरणाय, नरकाय, नरकतिरश्चये (तिर्यग्-योन्यर्थ), सततं मूढः धर्म न अभिजानाति, उदाह वीरः अप्रमादः महामोहे, अलं कुशलस्य प्रमादेन, शान्तिमरणं सम्प्रेक्ष्य, भिदुरधर्म सम्प्रेक्ष्य, न अलं पश्य, अलं तव एभिः॥ 86 // III सूत्रार्थ : आशा और इच्छा का विवेक कर, हे धीर ! तुं हि उस शल्य को स्वीकार के दुःखी हुआ है, जिससे कर्मबंध हुआ उससे मोक्ष नहि होता है, किंतु मोहवाले लोग यह बात नहिं समझतें... लोक स्त्रीओं से पीडित है, वे कहते हैं कि- यह घर-बार जरुरी है... किंतु यह घरबार उसके दुःख, मोह, मरण, नरक और तिर्यंचगति के लिये होते हैं, सतत मूढ प्राणी धर्म को नहि समझता है, वीर परमात्मा कहते हैं कि- महामोह में अप्रमादवाला बनें, कुशल को प्रमाद से क्या ? शांति = मोक्ष और मरण = संसार को देख करके, तथा विनश्वर धर्मवाले शरीर को देखकर प्रमाद न करें और यह भोगसुख तृप्ति के लिये समर्थ नहिं है, अत: तुम्हे इन भोगोपभोगों से क्या ? // 86 // IV टीका-अनुवाद : आशा याने भोगोपभोगों की चाहना तथा छंद याने अन्य के कहने से भोगोपभोग की इच्छा... इन दोनों का विवेक करो अर्थात् त्याग करो... हे धीर पुरुष ! (“धी” याने बुद्धि से जो “राजते" याने सुशोभित होता है वह धीर...) भोगों की आशा और इच्छा का त्याग