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________________ 198 1 -2 - 3 - 4/5 (81-82) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को चाहता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- भोजन याने भोग एवं उपभोग के लिये वह मनुष्य धन की कामना करता है, और उस धन की इच्छावाला वह प्राणी विभिन्न आरंभ क्रियाओं में प्रवृत्त होता है... अब ऐसी सेवा व्यापार आदि क्रियाएं करते करते उस प्राणी को कभी कभी लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम से विविध प्रकार की धन समृद्धि आदि सामग्री प्राप्त होती हैं, और उनका भोग एवं उपभोग करने के बाद जो कुछ धन बचता है उसे संभाल के रखता है, क्योंकि- इस धन से वह पुनः खान-पान आदि सामग्री प्राप्त कर शकता है, अतः धनका संग्रह महोपकरण माना जाता है... ____ लाभ योग्य कर्मो के उदय से कभी धन-समृद्धि प्राप्त होती तो है, किंतु अंतराय कर्म के उदय से वह धन उसको उपभोग में नहिं आतें... यह बात अब कहते हैं... वह प्राणी समुद्र तैरना, रोहणगिरि को खोदना, बिल = गुफाओं में जाना, रस = पारा का मर्दन करना, राजसेवा तथा कृषी-खेतीवाडी आदि स्व एवं पर को दुःख-पीडा देनेवाली अनेक प्रकार की क्रियाओं से अपने उपभोग के लिये उपार्जित कीय हुए धन का एकदा भाग्य के क्षय होने से दायाद याने वारसदार पुत्र परिवार गोत्रज या भागीदार लोग विभाग करके बांट लेते हैं, अथवा चौर लूट लेते हैं, अथवा राजा छीन लेते हैं, अथवा अटवी आदि मे छुपाकर रखा हुआ वह धन स्वयं हि नष्ट होता है, अथवा पडा पडा सड जाता है, अथवा घर में आग लगने से सब कुछ जलकर नष्ट होता है, अथवा तो धन के विनाश के कितने कारण हम कहें ? अर्थात् अनेक प्रकार से प्राप्त कीया हुआ धन भी नष्ट-विनष्ट होता है... . ____ अब कहते हैं कि- धनका उपार्जन करना उचित नही है, क्योंकि- अपने या अन्य के लिये धन का उपार्जन करने के लिये अज्ञानी बाल जीव गलकर्तन वध-हिंसा आदि क्रूर कर्म करता है, और उन कर्मो के फल स्वरूप असाता-दुःखों से वह प्राणी पुन: विवेकशून्य मूढ होता है, तथा सत् और असत् का विवेक न होने से कार्य को अकार्य और अकार्य को कार्य मानता हुआ विपर्यास को पाता है... कहा भी है कि- राग और द्वेष से पराभव पाया हुआ प्राणी कार्य और अकार्य के विचारों से पराङ्मुख होता है, ऐसा विपरीत कार्य करनेवाले प्राणी को मूढ कहतें है... इस प्रकार मूढता रूप अंधकार से आच्छादित हुआ है मार्ग जिन्हों का ऐसे सुख की कामनावाले प्राणी दुःखों को हि पाता है... ऐसा जानकर साधु-मुनिजन सभी पदार्थों के स्वरूप को प्रगट करनेवाले सर्वज्ञ प्रभु के वचन स्वरूप दीपक का आलंबन लेतें हैं... सुधर्मास्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- यह बात में अपने मन से नहिं कहता हूं, किंतु जगत् की त्रिकाल अवस्थाओं को जाननेवाले तथा प्रकृष्ट उच्चगोत्र के उदय से प्राप्त तीर्थंकर पदवाले परमात्माने सर्व जीवों को अपनी अपनी भाषा में परिणाम पानेवाली वाणी से जो कहा है वह मैं तुम्हे कहता हुं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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