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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 3 - 4/5 (81-82) 117 इस प्रकार "मृत्यु महा बलवान् है" ऐसा जानकर अहिंसादि व्रत-नियमो के पालन में सावधान रहना चाहिये... क्योंकि- सभी प्राणीओं को अपना आयुष्य (जीवित) प्रिय है... यहां प्राण कहने से अभेद ऐसे प्राणवाले प्राणी का ग्रहण कीया है... प्रश्न- सिद्ध-आत्माओं में यह बात कैसे घटित होगी ? क्योंकि- उनको आयुष्य हि नहि है, अतः वे आयुष्य प्रियवाले नहि है... उत्तर- यहां यह दोष नहि है... क्योंकि- जीव शब्द न ग्रहण करते हुए सूत्र में प्राण शब्द का ग्रहण कीया है और वह संसारी प्राणीओं के उपलक्षण के लिये हि है... अथवा पाठांतर... “सव्वे पाणा पियायया" आयत याने अनादि अनंत स्थितिवाला आत्मा... अतः आत्मा है प्रिय जिन्हों को वे प्राणी “प्रियात्मानः' हैं... और यह प्रियात्मता तो सुख की प्राप्ति और दुःखों के परिहार से हि होती है, इस लिये कहते हैं कि- सभी प्राणी आनंद रूप सुख का आस्वाद चाहते हैं और असाता रूप दुःख को नहि चाहते हैं... तथा दुःख का कारण होने से वध (मरना) अप्रिय है... और असंयम जीवित स्वरूप आयुष्य प्रिय है... तथा दीर्घकाल तक (लंबा आयुष्य) जीने की चाह है... दुःखों से पीडित प्राणी अंतिम अवस्था में भी मरना नहि चाहतें किंतु जीना चाहते हैं... कहा भी है कि- इस संसार में सभी प्राणी विषय सुखवाले जीवित के अभिलाषी है, किंतु ऐसा विषय-सुख तो आरंभ के सिवा नहि है, और वह आरंभ जीवों के वध स्वरूप है, और सभी प्राणीओं को अपना जीवित बहोत हि प्रिय है, इसलिये हि बार बार यह कहा जाता हैं कि- सभी संसारी जीवों को बिना अपवाद असंयम-जीवित प्रिय है, और उस असंयमजीवित का आश्रय करके वे लोग दास-दासी आदि सेवक स्वरूप द्विपद, तथा गाय, बैल, घोडे इत्यादि चतुष्पदों को सेवक बनाकर कार्यों में जोततें हैं... और प्रियजीवित के लिये धन की वृद्धि हो अत: द्विपद और चतुष्पद आदि के व्यापार से धन की वृद्धि करतें हैं... योगत्रिक याने मन वचन और काया... तथा करणत्रिक याने करण करावण और अनुमोदन, से अल्प या अधिक मात्रा में जो कुछ धन-समृद्धि प्राप्त हुइ है उनमें गृद्ध याने आसक्त वे प्राणी धनके उपार्जन में होनेवाले कष्ट को देखतें नहिं हैं, तथा प्राप्त उन धन के संरक्षण के श्रमको भी देखतें नहिं हैं... तथा उन धन-समृद्धि की चंचलता-अस्थिरता को भी नहि देखतें और यह धन निरर्थक है ऐसा भी नहिं सोचतें... कहा भी है कि- कृमि कीडे से व्याप्त, लार-थूक से व्याप्त, दुर्गंधि, निंदनीय ऐसी बिना मांसवाली मनुष्य की हड्डी को भी निरुपमरस की प्रीति से खाता हुआ श्वान याने कुत्ता पास में रहे हुए इंद्र से भी शंकित होता है कि- वह इंद्र कहिं मेरी यह हड्डी ले न ले... इस तरह क्षुद्र प्राणी हड्डी स्वरूप परिग्रह में आसक्त रहता है... इत्यादि... वह प्राणी क्यों धन
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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