________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 3 - 1 (78) 103 द्वारा स्पर्श करता है तब भाव से सूक्ष्म पुद्गल परावर्त्त होता है... रसबंध के अध्यवसाय स्थानकों का स्वरूप हम संयम स्थान के अवसर में पहले हि कह चुके हैं... // 4 // इस प्रकार कलकल भाव को प्राप्त यह या अन्य जीव नीचगोत्रकर्म के उदय से अनंतकाल पर्यंत तिर्यंच गति में रहता है... और मनुष्य जन्म में भी नीचगोत्रकर्म के उदय से वह प्राणी अपमानित स्थानो में उत्पन्न होता है... तथा कलकलभाव को प्राप्त प्राणी जब भी बेइंद्रियादि में उत्पन्न होता है तब प्रथम समय में अथवा पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद उच्चगोत्रकर्म का बंध करके मनुष्य गति में अनेकबार उच्चगोत्र को प्राप्त करता है... यहां मनुष्यगति में तृतीय भंग या पंचम भंग प्राप्त होता है... वे इस प्रकार- नीचगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय और सत्ता दोनो प्रकार की... यह तृतीय भंग है... और पांचवे भंग में उच्चगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय और उच्च-नीच दोनो की सत्ता... ___ तथा छठ्ठा और सातवा भंग-विकल्प तो बंध के अभाववाले जीव को क्षपक श्रेणी में होता है... किंतु यहां उनका विषय नहि है अत: उनका यहां इस सूत्र में अधिकार नहि है... उनका याने छठे एवं सातवे विकल्प का स्वरूप इस प्रकार है... बंधका अभाव, उच्च का उदय, दोनो की सत्ता... // 6 // बंध का अभाव, उच्च का उदय, उच्च की सत्ता... // 7 // यह सातवा भंग तो केवली भगवान को अयोगी नाम के चौदहवे गुणस्थान की अवस्था में जीवन के अंतिम द्विचरम समय में नीचगोत्र की सत्ता क्षीण होने पर मात्र उच्च का उदय और उच्च की सत्ता होती है... इस प्रकार उच्च और नीचगोत्र के प्रथम के पांच प्रकार के विकल्पों में अनेक बार (बार बार) उत्पन्न होनेवाले प्राणी को यह समझना चाहिये कि- न तो उच्चगोत्र का अभिमान करें, और न तो नीचगोत्र में दीनता करें, किंतु समभाव में रहें... यह उच्च और नीचगोत्र कर्म के बंध के अध्यवसाय स्थान-कंडक, परस्पर तुल्यसमान हि हैं, यह बात अब कहते हैं- उच्चगोत्रकर्मबंध के जितने अध्यवसाय स्थान-कंडक हैं उतने हि नीचगोत्रकर्म के बंध अध्यवसाय स्थान-कंडक हैं और अनादि के इस संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणी ने बार बार उन सभी कंडको का स्पर्श कीया है... इसलिये उच्चगोत्र एवं नीचगोत्र के कंडक की दृष्टि से कोई भी प्राणी न तो हीन है, और न तो अधिक है... - नागार्जुनीय मतवाले तो ऐसा कहतें हैं कि- विश्व के सभी जीव निश्चित हि भूतकाल में अनेक (अनंत) बार उच्च एवं नीच गोत्र में उत्पन्न हुआ है... और वह उच्च एवं नीच गोत्रकर्म रसबंध कंडक की अपेक्षा से न हीन है न अधिक है... वह इस प्रकार- एक भव के या अनेक भवों के उच्चगोत्र के कंडकों से नीचगोत्र कंडक न तो हीन है, और न तो अधिक है... ऐसा जानकर उत्कर्ष और अपकर्ष न करें... गोत्र के उपलक्षण से जाति-कुलबल आदि सभी मदस्थानों में यह सभी बातें स्वयं हि घटित करें... क्योंकि- उच्च एवं नीच