________________ 60 1 - 2 - 1 - 3 (65) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वह व्यक्ति मूढ़ भाव को प्राप्त हो जाती है। हम यह स्वयं देखते हैं कि- जब मनुष्य की इन्द्रियें ठीक तरह काम नहीं करती है, तब उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का भान नहीं रहता है और यह सारी स्थिति कर्मोदय पर आधारित है। अतः जो व्यक्ति विषयों में आसक्त होकर परिजनों के व्यामोह में फंसता है, एवं परिजनों के लिए विभिन्न पाप कार्यों में प्रवृत्त होता है, वह व्यक्ति पाप कर्म का बन्ध करता है और वृद्धावस्था में उसकी इन्द्रिये शिथिल हो जाने से वह मूढ़ता को प्राप्त होता है। ऐसी वृद्ध अवस्था में वे परिजन उससे दूर होकर किस तरह उसकी निन्दा करने लगते हैं, यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 3 // // 65 // 1-2-1-3 जेहिं वा सद्धिं संवसति, ते वि णं एगदा नियगा पुब्विं परिवयंति, सोऽविते नियए पच्छा परिवएजा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा, से न हासाय, न किड्डाए, न रतीए, न विभूसाए // 65 // II संस्कृत-छाया : __ यैः वा सार्द्ध संवसति, ते अपि एकदा निजकाः पूर्वं परिवदन्ति, स: अपि तान् निजकान् पश्चात् परिवदेत्, न अलं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा, त्वं अपि तेषां न अलं त्राणाय वा शरणाय वा, सः न हास्याय, न क्रीडायै, न रत्यै, न विभूषायै // 65 // III सूत्रार्थ : वह जिन्हों के साथ रहता है, वे आत्मीय लोग पहले हि उसका पराभव करते हैं, ओर वह भी अपने आत्मीय लोगों का बाद में पराभव करता है, वे लोग तुम्हारे रक्षण या शरण के लिये समर्थ नहिं हैं, और तुम भी उनके रक्षण या शरण के लिये समर्थ नहि हो... वह प्राणी न तो हसने योग्य है, न तो खेलने योग्य है, न तो कामक्रीडा के लिये योग्य है और न तो विभूषा के लिये योग्य है // 65 // IV टीका-अनुवाद : यहां “वा" शब्द विकल्प का सूचक है... अन्य लोक की बात तो दूर रहो, किंतु जिस पुत्र, पत्नी आदि के साथ रहता है, वे अपने आत्मीय पत्नी पुत्र आदि कि- जिसका पूर्वे समर्थ अवस्था में पोषण कीया है, वे भी वृद्धावस्था आने पर बोलते हैं... कि- “यह वृद्ध मरता नहि है, और मांचा = पलंग भी छोडता नहि है..." अथवा तो इस वृद्ध से क्या ? ऐसा बोलकर पराभव = तिरस्कार करतें हैं... केवल उनको हि क्लेश होता है, ऐसा नहि