SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-1-2 (६४)भ 5 % 3D ____ अवधि ज्ञान एवं मनः पर्यव ज्ञान युक्त व्यक्ति इन्द्रियों की सहायता के बिना ही मर्यादित क्षेत्र में स्थित रूपी पदार्थों एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोगत भावों को जान-देख लेता है। जब व्यक्ति अपनी आत्मा पर आच्छादित ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय कर देता है, तो फिर वह संसार के समस्त पदार्थों को और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को अपने विशुद्ध आत्मज्ञान केवलज्ञान से स्पष्ट देखने-जानने लगता है। इन्द्रियों का अस्तित्व रहते हुए भी उसे उनके सहयोग की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती। इससे स्पष्ट हो गया कि- इन्द्रियों का सहयोग मति और श्रुतज्ञान तक ही अपेक्षित है और ये इन्द्रिय वस्तु-पदार्थों को जानने के साधन मात्र हैं। इन्द्रियें पांच मानी गई है- १-श्रोत्र, २-चक्षु, ३-घ्राण, ४-रसना और ५-स्पर्शन इन्द्रिय। द्रव्य और भाव इन्द्रिय की अपेक्षा से प्रत्येक इन्द्रिय के दो-दो भेद किए गए हैं। द्रव्येन्द्रिय निर्वृत्ति और उपकरण रूप से है तथा भाव इन्द्रिय लब्धि और उपयोग रूप से है। इन्द्रियों के बाह्य आकार को द्रव्य इन्द्रिय कहते हैं और उसके अन्दर जो देखने, सुनने, सूंघने आदि की जो शक्ति है उसे भाव इन्द्रिय कहते हैं, वह लब्धि एवं उपयोग रूप में रहती है। उसके होने पर ही आत्मा इन द्रव्येन्द्रियों से पदार्थों का ज्ञान करती है। भाव इन्द्रिय के अभाव में द्रव्येन्द्रिय कोई कार्य नहीं कर सकती। आंख और कान का आकार तो बना हुआ रहता है, परन्तु जब उसके साथ भाव इन्द्रिय नहीं है अर्थात् लब्धि एवं उपयोग नहि है, तो उस आंख एवं कान के आकार से न देखा जा सकता है और न सुना जा सकता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि- इन्द्रियों की पटुता एवं मूढ़ता क्षयोपशम के आधार पर स्थित है। ___ यह स्पष्ट है कि- इन्द्रियें जड़ हैं। और जड़ होने के कारण शरीर के साथ-साथ इन में भी परिवर्तन आता है। वृद्धावस्था में शरीर के साथ यह द्रव्य-इन्द्रियां भी जीर्ण हो जाती हैं और चेतना के निकलने के बाद निष्प्राण शरीर की तरह इनका भी कोई मूल्य नहीं रहता है। अतः शरीर के साथ इनमें भी परिवर्तन आता है, परन्तु, इतना अवश्य है कि- यदि ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अधिक है, तो उसकी इन्द्रियें जीर्ण होने पर भी पदार्थों का बोध करने में पटु ही रहेगी और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अल्प है तो युवा काल में भी उनकी ग्रहण शक्ति कमजोर दिखाई देगी। हम देखते हैं कि- बहुत से वृद्ध व्यक्ति बिना ऐनक (चश्मा) लगाए ही अच्छी तरह देख लेते हैं, उनकी सुनने, सूंघने आदि की शक्ति में भी कमी दिखाई नहीं देती है और कई युवक भी ऐसे देखे जाते हैं कि- वे बिना ऐनक के देख ही नहीं सकते। अतः द्रव्य इन्द्रियों के शिथिल होने पर भी उनमें अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति सामर्थ्य ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम पर आधारित हैं। ... यह हम पीछे के उद्देशकों में देख चुके हैं कि- हिंसा एवं आरम्भ-समारम्भ में आसक्त रहने से पाप कर्म का बन्ध होता है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से आत्मा आवृत्त होती है अतः
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy