________________ 40 // 1-1 - 1 - 1 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विश्वास है कि खुदा ने पैगम्बर मुहम्मद साहिब को कुरान शरीफ का ज्ञान कराया था। इस तरह कुरान भी वेदों की तरह अपौरुषेय होने के कारण वेदों के समकक्ष खड़ा हो जायगा। और इसके अतिरिक्त वेदों में जो याज्ञिक हिंसा-यज्ञ में की जाने वाली पशु-हिंसा का आदेश दिया गया है और ईश्वर-कर्तुत्वं जैसी असंगत बातों का उल्लेख पाया जाता है तथा कुरानशरीफ में मांस-भक्षण आदि अधर्ममयी बातों का कथन किया है, उसे सत्य एवं मोक्षोपयोगी मानना पड़ेगा / परन्तु, ये मान्यताएं नितान्त असत्य है / क्योंकि हिंसाजन्य प्रवृत्ति में धर्म हो नहीं सकता / अतः जो शास्त्र धर्म के नाम पर हिंसा का, पशु के बलिदान का, पशु की कुर्बानी करने का आदेश देता है, वह धर्मशास्त्र नहीं, किंतु शस्त्र है, आत्मा का घातक है / वस्तुतः धर्म शास्त्र वह है, जो प्राणी मात्र की रक्षा एवं दया का उपदेश देता है / क्योंकि धर्म सब जीवों के प्रति दया, करुणा एवं कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होने में है / और यह बात सर्वज्ञोपदिष्ट वाणी में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है / अतः आगम अपौरुषेय नहीं, पौरूषेय . हैं, पुरूषोपदिष्ट होने पर भी प्रामाणिक हैं / क्योंकि उसके उपदेष्टा राग-द्वेष आदि विकारों से रहित हैं, सर्वज्ञ हैं, अतः उनकी वाणी में पारस्परिक विरोध नहीं मिलता / इस अपेक्षा से आगम पौरुषेय हैं और उसकी रचना का समय भी निश्चित है / अर्थात् वर्तमान काल में उपलब्ध आगमोंके अर्थरूप से उपदेष्टा भगवान महावीर हैं और सूत्रकार भगवान महावीर के पञ्चम गणधर आर्य सुधर्मा स्वामी हैं / अतः ‘आउसंतेणं' इस समस्त पद का तात्पर्य यह हुआ कि आयुष्य कर्म से युक्त / और फलितार्थ यह निकला कि कर्म-बन्ध से मुक्त होने पर भी जिनका अभी आयु कर्म क्षय नहीं हुआ है, ऐसे तीर्थंकर, आगमों का उपदेश देते हैं / 'आउसंतेण' इस पद पर उत्तराध्ययन सूत्र के द्वितीय अध्ययन की बृहद्वृत्ति में वृत्तिकार ने भी कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं / इस दिशा में वृत्तिकार का चिन्तन भी मननीय एवं विचारणीय होने से आगे की पंक्यिों में दे रहे है ___ “आउसंतेणं" ति प्राकृतत्वेन तिव्यत्ययादाजुषमाणेन-श्रवणविधिमर्यादया गुरुन् सेवमानेन, अनेनाप्येतदाह-विधिनैवोचितदेशस्थेन गुरुसकाशात् श्रोतव्यं न तु यथाकथञ्चिद् गुरुविनयभीत्या गुरुपर्षदुत्थितेभ्यो वा सकाशात् यथोच्यते-परिसुट्ठियाणं पासे सुणेइ, सो विणयपरिभंसि / " अर्थात्-‘आउसंतेणं' यह पद प्राकृत भाषा में तिव्यत्यय (परस्मैपद का आत्मनेपद और आत्मनेपद का परस्मैपद) होने से परस्मैपद है, किन्तु संस्कृत में इस पद की आत्मनेपदी 'आजुषमाणेन' यह छाया बनती है / आयुष्मान् का अर्थ है-सुनने की पद्धति का पालन करते हुए गुरु की सेवा करना / सुनने की पद्धति के परिपालन का अभिप्राय यह है कि गुरुदेव से शास्त्र या हितकारी उपदेश सुनते समय शिष्य न तो गुरु से अधिक दूर बैठे और नं अति निकट ही बैठे, परन्तु उचित स्थान में बैठकर एकाग्रचित्त से उपदेश एवं शास्त्र को सुने / अधिक