________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 卐 1 - 1 -1 - 1 // दूर बैठने से भली-भांति सुनाई नहीं पड़ेगा और अति निकट बैठने पर हाथ आदि अंगो के संचालन से उनके शरीर को आघात लग सकती है, अतः शिष्य को ऐसे स्थान में बैठ कर शास्त्र एवं उपदेश का श्रवण करता चाहिए, जहां से अच्छी तरह सुनाई भी पड़ सके और उनकी आशातना भी न हो / दसरी बात यह है कि गुरुदेव की सभा से उठकर आनेवाले लोगों से शास्त्र न सुने, परन्तु स्वयं गुरुदेव के सन्मुख उपस्थित होकर उनसे सुने / कभी कभी कुछ अविनीत शिष्य ऐसा सोच-विचार करे कि- गुरु के पास जाकर सुनेंगे तो उनका विनय करना होगा, अतः उन से सुनकर जो व्यक्ति आ रहे है, उनसे ही जानकारी कर लें / यह सोचना उपयुक्त नहीं है / इससे जीवन में प्रमाद बढ़ता है, विनम भाव का नाश होता है-जो धर्म एवं संयम का मूल है / इसी बात को ध्यान में रखकर वृत्तिकार ने 'आयुष्यमन्' पढ़ देकर गुरु की सभा से आनेवाले व्यक्तियों से ही सीधा शास्त्र एवं उपदेश भी सुनने की वृत्ति का निषेध किया है / और शिष्य को प्रेरित किया है कि वह विनम्र भाव से गुरु चरणों में बैठकर ही शास्त्र का श्रवण करे / ऐसी विनम वृत्तिवाले शिष्य के लिए ही 'आयुष्यमन्' पद का प्रयोग किया है / "आउसं ! तेणं'' इस पाठ के स्थान पर कुछ प्रतियों में 'आमुसंतेणं' तथा 'आवसंतेणं' ये दो पाठान्तर भी मिलते हैं / इनके अर्थ पर भी विचार कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा / 'आमुसंतेणं' इस पद की संस्कृत छाया “आमृशता'' और 'आवसंतेण' पद की संस्कृत छाया . 'आवसता' होती है / इन उभय शब्दों का संबन्ध "मे' पद से है / या यों कहिएं कि ये दोनों पद आर्यसुधर्मा स्वामी के विशेषण हैं / टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने दोनों पदों का अर्थ इस प्रकार किया है-"मया आमुसंतेणं" आमृशता (स्पृशता) भगवत्-पादारविन्दम्, आवसन्तेणं.. आवसता वा तदन्तिके / अर्थात्-भगवान महावीर के चरणों का स्पर्श करते हुए मैंने या भगवान महावीर के पास निरन्तर निवास करते हुए मैंने / उक्त दोनों पाठान्तरों से श्रुत ज्ञान की प्राप्ति एवं उसकी सफलता के लिए शिष्य के जीवन में जिन गुणों एवं संस्कारों का सद्भाव होना चाहिए, उनका भली-भांति बोध हो जाता है / सब से पहले श्रुतयाही शिष्य के जीवन में विनम्रता एवं गुरु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति होनी चाहिए / यदि शिष्य का जीवन-दीप विनय एवं श्रद्धा के स्नेह-तेल से खाली है, तो उसमें श्रुत ज्ञान की प्रकाशमान ज्योति जग नहीं सकती, उसके जीवन को सम्यक् ज्ञान के प्रकाश से आलोकित नहीं कर सकती / अतः श्रुत ज्ञान को पाने के लिए गुरु के प्रति आस्था एवं सर्वस्व समर्पण की भावना तथा उनकी सेवा-शुश्रूषा में संलग्न रहने की वृत्ति होनी चाहिए / 'आमुसंतेणं' यह इन्हीं आदर्श एवं समुज्जवल भावों का संसूचक है /