________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 1 - 1 37 पद्धति से विचार करते हैं, तो फिर शंका को अवकाश नहीं रह जाता है अर्थात् उक्त कथन सर्वथा सत्य सिद्ध हो जाता है / आचाराङ्ग सूत्र के "सुयं मे..." इस सूत्र से स्पष्ट ध्वनित होता है कि सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी के पूछने पर ही इस भाषा में आचाराङ्ग का वर्णन शुरू किया था / जो कुछ भी हो, तीर्थंकरों की अर्थ रूप वाणी को गणधर सूत्ररूप में गून्थते हैं और अपने शिष्यों की जिज्ञासा को देखकर उनके सामने अपना ज्ञान-पिटारा खोलकर रख देते हैं / आर्य सुधर्मा स्वामी ने भी भगवान महावीर से प्राप्त अर्थरूप द्वादशांगी को अपने प्रमुख शिष्य जम्बू की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए सूत्र रूप में सुनाना प्रारम्भ कर दिया / प्रस्तुत सूत्र का पहला सूत्र है-"सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं // 1 // " सुयं मे अर्थात् मैंने सुना है / इस पद से यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आगम मेरे मन की कल्पना या विचारों की उडान मात्र नहीं, बल्कि श्रमण भगवान महावीर से सना हआ है / इस से दो बातें स्पष्ट होती हैं-एक तो यह कि आगम सर्वज्ञ प्रणीत होने से प्रामाणिक है / श्रमण संस्कृति के विचारकों ने भी आप्त पुरुष के कथन को आगम कहा है / आप्त पुरूष कौन है ? इस का विवेचन करते हए आगमों में कहा गया कि राग-द्वेष के विजेता तीर्थंकर-सर्वज्ञ भगवान, जिनेश्वर देव आप्त हैं / फलितार्थ यह हुआ कि जिनोपदिष्ट वाणी ही जैनागम हैं / और वह सर्वज्ञों द्वारा उपदिष्ट होने के कारण प्रामाणिक है / दूसरी बात यह है कि इस पढ़ से गणधर देव की अपनी लघुता, विनम्रता एवं निरभिमानता भी प्रकट होती है / चार ज्ञान और चौदह पूर्वो के ज्ञाता एवं आगमों के सूत्रकार होने पर भी उन्हों ने यों नहीं कहा कि मैं कहता हूं, परन्तु यही कहा कि जैसा भगवान के ‘मुंह से सुना है वैसा ही कह रहा हूं / महापुरूषों की यही विशेषता होती है कि वे अहंभाव से सदा दूर रहते हैं / उनके मन में अपने आप को बड़ा बताने की कामना नहीं रहती / अस्तु, 'सुयं मे' ये पद आर्य सुधर्मा स्वामी की विनयशीलता एवं भगवान महावीर के प्रति रही हुई प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति के सूचक हैं / __“आउसं !" इस पद का अर्थ होता है-हे आयुष्मन् ! यहां आयुष्मन् शब्द से जम्बू स्वामी को सम्बोधित किया गया है / अतः यह संबोधन पद जम्बू स्वामी का विशेषण है / जबकि मूल सूत्र में विशेष्य पद का निर्देश नहीं किया गया है, फिर भी विशेष्य पद का अध्याहार कर लिया जाता है / क्योंकि, जब भी कोई वक्ता कुछ सुनाता है तो किसी श्रोता को सुनाता है / यहां आर्य सुधर्मा स्वामी आचाराङ्ग सूत्र सुना रहे हैं और उसके श्रोता है जन स्वामी / इस बात को हम पीछे के पंक्तियों में बता आए हैं कि जम्बू की आगम-श्रवण करने की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए ही आर्य सुधर्मा स्वामी ने आचाराङ्ग सूत्र का सुनाना शुरू किया /