________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐 1 - 1 -1-1 // करता हुं... वह अनुयोग चार प्रकारसे होता है... वह शता (1) धर्मकथानुयोग... उत्तराध्ययन... आदि... (2) गणितानुयोग.... सूर्यप्रज्ञप्ति... आदि... (3) द्रव्यानुयोग... 14 पूर्व... सम्मतितर्क आदि... (4) चरणकरणानुयोग... आचारांग... आदि... इस चार अनुयोगोमें चरणकरणानुयोग हि श्रेष्ठ है... शेष तीन अनुयोग इसी के हि समर्थनके लिये हि होते हैं... कहा है कि... सम्यक् चारित्रकी विशुद्धिके लिये ही धर्मकथा आदि अनुयोग कहे गये है... द्रव्यानुयोग से सम्यग्दर्शनकी शुद्धि होती है... और सम्यग्दृष्टिको हि सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र क्रमशः उपलब्ध होते हैं गणधरोंने भी द्वादशांगीमें सर्वप्रथम आचारांग सूत्र हि लिखा है अतः आचारांग सूत्रका अनुयोग यहां लिखा जा रहा है... यह आचाराङ्ग सूत्रका अनुयोग परमपद (मोक्ष) का कारण है अतः शुभ है... और .. शुभकार्य सदैव हि अनेक विघ्नोवाले होते हैं..... कहा है कि- शुभकार्य अनेक विघ्नोवाले होते हैं अच्छे अच्छे सज्जनोको भी शुभकार्योमें अनेक कठीनाइयां आती है... इसलिये सभी विघ्नोके विनाशके लिये मंगलाचरण करना चाहिये... यह मंगलाचरण शास्त्रमें तीन जगह होता है / आदि, मध्य एवं अंत में... 1. आदि मंगल... ग्रंथके आरंभ में... इससे निर्विघ्न ग्रंथकी समाप्ति होती है... 2. मध्य मंगल... ग्रंथके मध्य भागमें... इससे ग्रंथार्थका स्थिरीकरण होता है... 3. अवसान मंगल... ग्रंथके अंत भागमें... इससे शिष्य-प्रशिष्य परंपरामें ग्रंथार्थका प्रवाह निरंतर लता रहता अथवा तो आत्माके गुणोको प्रगट करनेवाला यह संपूर्ण शास्त्र हि मंगल स्वरूप हि है...