________________ " 1-1-1-1 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भवाब्धितारकान् वन्दे श्रीयतीन्द्रसूरीश्वरान् तथा च कविगुणाढ्यान् विद्याचन्द्रसूरीश्वरान् || 3 || गच्छाधिनायकान् नौमि श्रीहेमेन्द्रसूरीश्वरान् येषां शुभाशिषा कार्य सुगमं सुन्दरं भवेत् गुरुबन्धु श्री सौभाग्य-विजयादि-सुयोगतः हितेश-दिव्यचन्द्राणां शिष्याणां सहयोगतः जयप्रभाऽभिधः सोऽहं श्रीराजेन्द्रसुबोधनीम् आहोरीत्यभिधां कुर्वे टीकां बालावबोधिनीम् // 6 // युग्मम् टीका-अनुवाद जिनेश्वरोंने प्रतिष्ठित कीया हुआ यह श्रीजिन-शासन नामका तीर्थ पुरे विश्वमें विजयवंत है... क्योंकि - इस तीर्थने समस्त वस्तुओंके पर्याय एवं द्रव्य संबंधित विचार-वचनसे सभी कुमतोंका निराश किया है, तथा यह जिनशासन तीर्थ अनादि-अनंत स्थितिवाला है, अनुपम है एवं सभी तीर्थकरोने प्रमाणित कीया है... अन्य मत एक एक नयको निरपेक्ष दृष्टि से स्वीकारतें हैं, जब कि - जिनमत सभी नयोंको सापेक्ष दृष्टिसे स्वीकारता है... अतः जिनमत श्रेष्ठ है... वृत्ति के प्रारंभमें श्री शीलांकाचार्यजी कहतें हैं, कि- जिस प्रकार श्री महावीर प्रभु ने जगतके जीवोंके हितके लीये “आचार-शास्त्र' विनिश्चित प्रकारसे कहा है, उसी हि प्रकार विनय भावसे कहते हुए मेरी इस वाणीको बुद्धिमान लोग (पठन-मनन चिंतनके द्वारा) पवित्र करें... पू.आ. देव श्री गंधहस्तिसूरिजी ने शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनका विवरण किया तो है, किंतु वह अतिशय गहन होनेके कारणसे पांचवे आरेके जीवोंको समझने में कठीनाइयां होती है अतः उन्हें समझने में सुगमता हो इस दृष्टिकोणसे मैं (शीलाङ्काचार्य) सार सार ग्रहण करके यह सुगम विवरण लिखता हूं... अनादि-अनंत स्थितिवाले इस विश्वमें राग-द्वेष एवं मोह आदिसे अभिभूत ऐसे सभी संसारी जीवात्माओंको शारीरिक एवं मानसिक पीडा रूप कठीनाइओंको दूर करनेके लिये, वस्तुपदार्थोका हेय (त्याग) एवं उपादेय (स्वीकार) का विज्ञान प्राप्त करना चाहिये... किंतु ऐसा विज्ञान, विशिष्ट विवेकसे हि प्राप्त होता है... और ऐसा विशिष्ट विवेक, 34 अतिशयवाले आप्त पुरुष (तीर्थंकर) के उपदेशसे हि हो सकता है... राग-द्वेष ऐवं मोह आदि दोषोंके संपूर्ण क्षयसे हि आत्मा आप्तपुरुष कहलाता है... अतः ऐसा आप्तपुरुष केवल वीतराग-सर्वज्ञ हि होते हैं... इसलिये वीतराग-सर्वज्ञ ऐसे श्री महावीर परमात्माके उपदेश वचनोंका हि मैं अनुयोग प्रारंभ .