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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 7 - 7 (62) 305 % 3D उत्तर- 'छंदोपनीता = पूर्वापरका बिचार कीये बिना हि अपने आप मनः कल्पित बिचारवाले अथवा तो विषयाभिलाषवाले अविनीत ऐसे यह शायय आदि साधु, आरंभ-समारंभको हि विनय (संयम) कहतें हैं... और अध्युपपन्ना याने विषयोपभोगकी अतिशय आसक्तिवाले अर्थात् विषयाधीन चित्तवाले वे शाक्य आदि साधु सावध - पापवाले अनुष्ठानमें आसक्त होकर आठ प्रकारके कर्मोका संग करतें हैं, कर्मोके संगसे संसारमें परिभमणा होती है... इस प्रकार छ (6) जीवनिकायका वध करनेवाले संसारमें परिभमणा स्वरूप अपाय = दुःखको प्राप्त करतें हैं... अब जो साधु, आरंभसे निवृत्त होता है, उसका स्वरूप आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : पीछे के उद्देशक में इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि पृथ्वी आदि जीवों की हिंसा कर्म बन्ध का कारण है / इस सूत्र में यह स्पष्ट बताया गया है कि एक काय की हिंसा करने वाला छः काय के जीवों की हिंसा करता है / जैसे जो व्यक्ति पृथ्वी की हिंसा करता है, उसमें पृथ्वीकायिक जीवों के आश्रय में रहे हुए अन्य अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रस जीवों की हिंसा होती है / इसी प्रकार अन्य जीवों की हिंसा के संबन्ध में भी जानना चाहिए। इस प्रकार छः काय का आरम्भ समारम्भ करने में कर्मों का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप संसार परिभ्रमण एवं दुःख परम्परा का प्रवाह बढ़ता है / कुछ व्यक्ति अपने आप को साधु कहते हुए भी हिंसा में प्रवृत्त होते हैं / इसका कारण यह है कि वे शब्दों से अपने आप को साधु कहते हैं, परन्तु आचार की दृष्टि से वे अभी साधुत्व से बहुत दूर हैं / क्योंकि वे ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार में रमण नहीं करते हैं और जब तक आचार को सम्यक् चारित्र को क्रियात्मक रूप से स्वीकार नहीं करते, तब तक उनकी प्रवृत्ति साधुत्व में नहीं होती / इसी कारण वे आचार रहित व्यक्ति, विषय वासना में आसक्त होकर विभिन्न प्रकार से अनेक जीवों की हिंसा करते हैं / इसलिए उनका सावध अनुष्ठान कर्म बन्ध का कारण है और परिणाम स्वरूप वे संसार में परिभ्रमण करते हैं / __ इसलिए मुमुक्षु को षट्कायिक जीवों के आरम्भ से निवृत्त होना चाहिए / कौन व्यक्ति जीवों की हिंसा से निवृत्त हो सकता है / इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि अब आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 7 // // 2 // से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेण अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं नो अण्णेसिं,
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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