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________________ 304 1 -1-7-6 (61) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वाले / अज्झोववण्णा-विषयों में आसक्त हो रहे हैं, तथा / आरंभसत्ता-आरंभ में आसक्त हैं, ऐसे प्राणी / पकरंति संगं-आत्मा के साथ अष्ट कर्मों का संग करते हैं अर्थात् अष्ट कर्मों से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं / IV सूत्रार्थ : ___इस वायुकायमें भी आरंभको करनेवालोंको जानो... जो आचारमें नहिं रहतें, वे शाक्य आदि, आरंभ को हि विनय कहतें हैं... इच्छाके परवश और विषय भोग सुखकी कामनावाले आरंभ-समारंभमें आसक्त होकर कर्मबंध स्वरूप संग करतें हैं // 1 // V टीका-अनुवाद : प्रस्तुत वायुकायका और अपि शब्दसे पृथ्वीकाय आदिका भी जो आरंभ करतें हैं वे कर्मोका उपादन (ग्रहण) करतें हैं अर्थात् कर्मबंध करतें हैं... प्रश्न- एक जीव-निकायके वधमें शेष जीवनिकायके वधसे होनेवाला कर्मबंध कैसे हो ? उत्तर- एक जीव-निकायका आरंभ भी शेष जीवनिकायके उपमर्दन (वध) के बिना हो हि नहिं शकता... यह बात तुम सत्य समझो... सारांश यह है कि- पृथ्वीकायका आरंभ करनेवाले शेषकायोंके आरंभके कर्मबंधको करते हैं... प्रश्न- ऐसे कौन है ? कि- जो पृथ्वीकाय आदिके आरंभ करनेवाले शेषकायोंके आरंभके कर्मोको ग्रहण करतें हैं ? उत्तर- शाक्य आदि मतवाले तथा दिगम्बर एवं पार्श्वस्था आदि जो कोइ भी साधु परमार्थको नहिं जाननेके कारणसे ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप एवं वीर्याचार स्वरूप पांच प्रकारके आचारमें धृति (स्थिरता) को नहिं करतें, अतः वे पृथ्वीकाय आदिके आरंभ से होनेवाले कर्मोसे गृहित होते हैं यह बात समझीयेगा... प्रश्न- ऐसा क्यों ? उत्तर- क्योंकि- वे शाक्य आदि साधु पृथ्वीकाय आदि जीवोके आरंभको हि विनय (संयम) कहतें हैं... क्योंकि- वे लोग पृथ्वी आदि में पृथ्वीकाय आदि जीवोंका स्वीकार नहिं करतें, अथवा तो पृथ्वीकाय आदि जीवोंको स्वीकार करने पर भी ज्ञानाचारादि पंचाचारके अभावमें उनके (पृथ्वीकायादिके) आरंभमें प्रवृत्त होनेसे नष्टशील हि है... अर्थात् वे शाक्य आदि साधु वास्तव में साधुगुण संपन्न, साधु नहीं हैं... प्रश्न- ऐसा तो कौन कारण है कि- दुष्टशीलवाले भी अपने आपको "हम विनय (संयम) में रहे हुए हैं" ऐसा कहतें हैं ?
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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