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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी- टीका #1-1-7-4 (59) 299 III शब्दार्थ : लज्जमाणा-लज्जा पाते हुए / पुढो-पृथक्-पृथक् वादियों को / पास-हे शिष्य ! तू देख / अणगारामोत्ति-हम अनगार हैं / एगे-कई एक सन्यासी। पवयमाणा-कहते हुए। जमिणं-जिससे वे / विरूवसवेहि-नाना प्रकार के / सत्थेहि-शस्त्रों से / वाउकम्म-समारंभेणंवायु कर्म समारंभ से / वाउसत्थं-वायुकाय शस्त्र के द्वारा / समारम्भमाणे-समारम्भ करते हुए। अण्णे-अन्य / अणेगसवे-अनेक प्रकार के / पाणे-प्राणियों की / विहिंसंति-हिंसा करते हैं। तत्थ-उस आरम्भ के विषय में / खलु-निश्चय ही / भगवया-भगवान ने / परिणापरिज्ञा। पवेइया-प्रतिपादन किया है / इमस्स चेव-इस असार जीवन के लिए / परिवंदणमाणणपूयणाए-प्रशंसा, मान और पूजा के लिए / जाइ-मरण-मोयणाए-जन्म-मरण से छूटने के लिए 1 दुक्खपडिघायहेउ-अन्य दुःखों के विनाशार्थ / से-वह / सयमेव-स्वयमेव / वाउसत्थं-वायुकाय शस्त्र का / समारभति-समारम्भ करता है / वा-अथवा / अण्णेहि-दूसरों से / वाउसत्थं-वायु शस्त्र का / समारम्भावेइ-समारम्भ कराता है / अण्णे-अन्य / वाउसत्थंवायु शस्त्र का। समारम्भमाणे-समारंभ करने वालों की / समणुजाणड-अनुमोदन करता है / तं-वह-वायुकाय का आरम्भ / से-उसको / अहियाए-अहित के लिए है / तं-वह-आरम्भ। से-उसको / अबोहीए-अर्बोधि के लिए है / से-वह / तं-उस आरम्भ के फल को / संवुज्झमाणे-जानता हुआ / आयाणीयं-आचरणीय सम्यग् दर्शनादिको / समुट्ठाय-ग्रहणकर। सोच्चा-सुनकर / भगवओ-भगवान या / अणगाराणं-अंनगारों के / अंतीए-समीप / इहइस जिन शासन में। एगेसिं-किसी-किसी प्राणी को / णायं भवति-यह ज्ञात होता है कि / एस खलु-निश्चय ही यह आरंभ / गंथे-आठ कर्मों की ग्रन्थी रूप है / एस खलु-यह आरम्भ / मोहे-मोहरूप है / एस खलु-निश्चय ही यह आरंभ / मारे-मृत्यु रूप है / एस खलु-निश्चय ही यह आरम्भ / णिरए-नरक का कारण होने से नरक रूप हैं / इच्चत्थं-इस प्रकार अर्थ में / गड्ढिए-मूर्छित। लोए-लोक-प्राणि-समुदाय / जमिणं-जिससे / विसवसवेहि-नाना प्रकार के / सत्थेहि-शस्त्रों से / वाउकम्मसमारम्भेणं-वायु कर्म समारंभ से / वाउसत्थं-वायु शस्त्र का / समारम्भमाणे-समारंभ करता हुआ / अण्णे-अन्य भी / अणेगसवे-अनेक प्रकार के / पाणे-प्राणियों की। विहिंसति-हिंसा करते हैं / IV सूत्रार्थ : हे शिष्य ! अपने असंयमसे लज्जा पाते हुए विविध साधुओंको देखो ! वे कहतें हैं किहम अणगार (साधु) है... और विविध प्रकारके शस्त्रोंके द्वारा वायुकर्मसमारंभसे वायुकायशस्त्र का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकारके जीवोंकी हिंसा करतें हैं... इस विषयमें परमात्माने परिज्ञा कही है, कि- इस तुच्छ जीवितव्य (जीवन) के परिवंदन, मानन एवं पूजनके लिये जन्म, मरणसे छुटनेके लिये और दुःखोके विनाशके लिये वह शाक्य आदि मतवाले साधु स्वयं (खुद)
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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