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________________ 298 // 1-1-7-4 (59)" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के जीवन का अधिक ध्यान रहता है / इसलिए वे अपने सुख के लिए, या अपने जीवन को बनाए रखने की अभिलाषा से दूसरे प्राणियों के सुख, हित, समृद्धि एवं जीवन का विनाश नहीं करते / क्योंकि, अपनी आत्मा के समान ही जगत के अन्य जीवों की आत्मा है / अतः अपने स्वार्थ के लिए वे दूसरों की हिंसा की आकांक्षा नहीं रखते हुए, प्राणी जगत की दया, रक्षा एवं अनुकम्पा करते हैं / अतः अहिंसा का इतना सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ स्वरूप जैन शासन के अतिरिक्त अन्य किसी धर्म में नहीं मिलता / ___ अस्तु, हम यह कह सकते हैं कि जैन साधु ही अस एवं स्थावर जीवों के संरक्षक हो सकते हैं / वे हिंसा के सर्वथा त्यागी होते हैं / अतः अन्य मत वालों के संबन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 4 // // 59 // लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मो ति, एगे पवयमाणा जमिणं विसवसवेहिं सत्थेहिं वाउकायसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगसवे पाणे विहिंसति / तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया / इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिधायहेउं से सयमेव वाउसत्थं समारभति, अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेड, अण्णे वाउसत्थे समारंभंते समनुजाणति, तं से अहियाए, तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोचा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं नायं भवति- एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विसवसवेहि सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगसवे पाणे विहिंसति // 59 // II संस्कृत-छाया : लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनागाराः वयं इति एके प्रवदन्तः यदिदं विसपसपैः शरीः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशखं समारम्भमाणा: अन्यान् अनेकसपान प्राणिनः विहिंसन्ति / तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता / अस्य चैव जीवितव्यस्य परिवन्दन-मानन-पूजनार्थ, जातिमरणमोचनार्थ, दुःखप्रतिघातहेतुं, सः स्वयमेव वायुशखं समारभते, अन्यैः वा वायुथसं समारम्भयति, अन्यान् वायुशखं समारभमाणान् समनुजानीते / तं तस्य अहिताय, तं तस्य अबोधये, सः तं सम्बुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवत: अनगाराणां अन्तिके, इह एकेषां ज्ञातं भवति- एषः खलु ग्रन्थः, एषः खलु मोहः, एषः खलु मारः, एषः खलु नरकः, इत्यर्थं गृद्ध लोकः यदिदं विरूपसपैः शरैः वायुफर्मसमारम्भेण वायुशखं समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणिन: विहिनस्ति // 59 //
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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