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________________ 296 1 - 1 - 7 - 3 (58) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अनुरूप ही आचार में परिवर्तन आ जाता है / तब वह मनुष्य अपनी आत्मा की तुला से प्राणी मात्रके सुख-दुःख को तोलता हुआ, सदा प्राणी मात्र के संरक्षण में रहता है / यह ही उसकी आत्मा का विकास मार्ग है, मोक्ष मार्ग है / इससे निष्कर्ष यह निकला कि- आतंकदर्शी मुनी अपनी आत्मतुला से प्राणी जगत के सुख-दुःख को तोलकर हिंसा से निवृत्त होता है / अर्थात् समस्त प्राणियों की रक्षा में प्रवृत्त होता है / यहां यह प्रश्न हो सकता है कि वह आतंकदर्शी साधक स्थावर जीवों की या वायुकायिक जीवों की रक्षा में किस प्रकार प्रवृत्त होता है ? इसी बात का समाधान सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में करेंगे... I सूत्र // 3 // // 58 // इह संतिगया दविया नावकंखंति जीविउं // 18 // II संस्कृत-छाया : इह शान्तिगताः द्रविकाः नाऽवकाङ्क्षन्ति जीवितुम् // 58 // III शब्दार्थ : इह-इस जिन शासन में / संतिगया-शांति को प्राप्त हुए / दविया-राग-द्वेष से रहित संयमी मुनि वायुकाय की हिंसा से / जीविउं-अपने जीवन को रखना / णावखंति-नहीं चाहते। IV सूत्रार्थ : इस जिनमतमें उपशम भाववाले साध सदोष जीवन नहिं चाहतें... | // 58 / / v टीका-अनुवाद : इस दया-रसवाले जिनप्रवचनमें शांतिः शम भावको पाये हुए साधु राग-द्वेषसे मुक्त है... प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य लक्षण सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रको हि शांति कहतें हैं, और यह शांति हि निराबाध-मोक्षकी प्राप्तिका कारण है... तथा द्रव याने संयम... यह सत्तरह प्रकारका संयम हि कर्मकी कठिनताका विनाश करता है... ऐसे शांत और संयमी साधु, वायुकायके उपमर्दन याने वध करके जीना नहि चाहतें... वायुकायकी तरह पृथ्वीकाय आदि जीवोंका भी वध नहिं करतें... सारांश यह है कि- इस जिनशासनमें सत्तरह प्रकारके संयमकी मर्यादामें रहे हए, राग-द्वेषसे मुक्त और अन्य जीवोंके वधके द्वारा होनेवाले सुखको नहि चाहनेवाले ही साधु होतें हैं... अन्य मतमें ऐसे साधु नहिं होतें... क्योंकि- उन्हे ऐसी
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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