SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-1-7-2 (57) // 295 VI सूत्रसार : संसार में दो प्रकार का आतंक होता है-१-द्रव्य-आंतक और २-भाव-आतंक / विष आदि ज़हरीले पदार्थों से मिश्रित भोजन द्रव्य आतंक है और नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में भोगे जाने वाले दुःख भाव आतंक कहलाते हैं / इन उभय आतंकों के स्वरूप को भली-भांति जानने वाला आतंकदर्शी कहलाता है / इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि आरम्भ-समारम्भ एवं पाप कार्य से डरने वाला व्यक्ति ही आतंकदर्शी होता है. / क्योंकि आरम्भ-समारम्भ से पापकर्म का बन्ध होता है और पापकर्म के बन्धन से जीव नरक आदि गतियों में उत्पन्न होता है और वहां विविध दुःखों का संवेदन करता है / अस्तु, उन दुःखों से डरने वाला अर्थात् नरक आदि गति में महावेदना का संवेदन न करना पड़े ऐसी भावना रखने वाला आतंकदर्शी व्यक्ति सदा आरम्भ समारम्भ से बचकर रहता है, वह हिंसा से निवृत्त रहता हैं, प्रतिक्षण विवेक पूर्वक कार्य करता है, फलस्वरूप वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता, अतः उसे नरक-तिर्यञ्च के दुःखों का संवेदन नही करता पडता / / इससे यह स्पष्ट हो गया कि जो आतंकदर्शी है, वही व्यक्ति हिंसा को अहितकर एवं दुःखजन्य समझकर उससे निवृत्त होने में समर्थ है / वस्तुस्थिति भी यही है कि हिंसा को अहितकर समझने वाला ही उसका परित्याग कर सकता है / जो व्यक्ति हिंसा के भयानक परिणाम से अनभिज्ञ है तथा हिंसा को अहितकर एवं बुरा नहीं समझता है, उससे हिंसा से निवृत्त होने की आशा भी कैसे रखी जा सकती है / अतः आतंकदर्शी ही हिंसा से निवृत्त हो सकता है / * प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'जे अज्झत्थं जाणइ................... आदि पद भी बड़े महत्त्वपूर्ण है / इन पदों के द्वारा सूत्रकार ने आत्म विकास की और गतिशील आत्मा का वर्णन किया है / वास्तव में वही व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास कर सकता है, कि- जो अपने सुखदुःख के समान ही अन्य प्राणियों के सुख-दुःख को देखता है तथा दूसरों के सुख-दुःख के समान ही अपने सुख-दुःख को समझता है, या यों कहिए कि - अपनी आत्मा के तुल्य ही समस्त प्राणियों की आत्मा को देखता है, वही साधु विकास गामी है, अर्थात् मोक्ष मार्ग का पथिक है। जब दृष्टि में समानता आ जाती है, तो फिर व्यक्ति किसी भी प्राणी को पीड़ा पहुंचाने का प्रयत्न नहीं करता, वह अपने भौतिक सुखो के लिए दूसरे के सुख, एवं आत्म हित पर आघात-चोट नहीं करता / दूसरे को दुःख, कष्ट पहुंचाकर भी अपने वैषयिक सुखों को साधने की भावना तब तक बनी रहती है, जब तक दृष्टि में विषमता है, अपने और पराये सुख का भेद है / अतः समानता की भावना जागृत होने के बाद, आत्मा की विचारधारा में विचार के
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy