________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 7 - 1 (56) 291 III शब्दार्थ : एजस्स-वक्ष्यमाण गुणों वाला व्यक्ति वायुकाय के / दुगुंछणाए-आरम्भ का त्याग करने में / पहू-समर्थ होता है / IV सूत्रार्थ : वायुकी जुगुप्सामें समर्थ है... || 56 / / v टीका-अनुवाद : यहां छठे उद्देशकके अंतिम सूत्रमें त्रसकायका परिज्ञान एवं उसके आरंभका वर्जन (त्याग) हि मुनिपनेका कारण कहा गया है, यहां इस उद्देशकमें भी वायुकायका परिज्ञान और उसके आरंभका वर्जन हि मनिपनेका कारण कहा जायेगा.. एज्-धातुका अर्थ है "कम्पन", कंपनशील होनेसे वायुको “एज" कहतें हैं... इस एज याने वायुकी जुगुप्सा करनेमें याने वायुके आसेवनका त्याग करने में यह मुनी समर्थ बनता है... अथवा (पाठांतर से) वायु अधिक होने पर हि केवल एक हि स्पशेंद्रियसे पहचाना जा शकता है, अतः संयमी मुनी हि वायुको जुगुप्सा याने श्रद्धान करने में समर्थ बनता है, अर्थात् वायुकायको जीव स्वरूप श्रद्धा (मान) करके उसके आरंभका त्याग करता है... वायुकायके समारंभसे निवृत्त होनेमें जो समर्थ होता है, उस मुनीका स्वरूप अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : वायुकायिक जीवों की हिंसा, कर्म बन्ध का कारण है / अतः कर्म बन्ध से वही व्यक्ति बच सकता हैं कि- जो वायुकायकी हिंसा से निवृत्त होता है / इस पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वायुकायिक जीवों की हिंसा से कौन निवृत्त होता है ? इस प्रश्न का समाधान आगे के सूत्र में करेंगे / प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने संकेत मात्र किया है कि अगले सूत्रमें जिस व्यक्ति के गुणों का निर्देश किया जाने वाला है, उन गुणों से संपन्न व्यक्ति ही वायुकाय के आरम्भ से निवृत्त होने में समर्थ हैं / 'एज' शब्द वायुकाय के अर्थमें प्रयुक्त हुआ है / और इस शब्द का प्रयोग वायुकाय को गति की अपेक्षा से हुआ है / क्योंकि 'एज' शब्द 'एज़ कम्पने' धातुसे बना है / इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-“एजतीत्येजी वायुः कम्पनशीलत्वात्" / अर्थात् कम्पनशील होने के कारण वायुको ‘एज' कहते हैं / और जुगुप्सा का अर्थ निवृत्ति है / इससे निष्कर्ष यह निकला कि- वायुकाय के आरम्भ से निवृत्त होने में वह व्यक्ति समर्थ है, कि- जो साधु, सूत्रकार की