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________________ 282 1 -1-6-6 (54) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दंताए, दाढाए, नहाए, हारुणीए, अट्ठीए, अहि मिंजाए, अट्ठाए, अणढाए, अप्पेगे हिंसिंसु मे त्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मे त्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसिस्संति मे त्ति वा वहति // 14 // II संस्कृत-छाया : . सोऽहं ब्रवीमि- अप्येके अयि ध्वन्ति, अप्येके अजिनाय ध्वन्ति (व्यापदयन्ति), अप्येके मांसाय ध्नन्ति, अप्येके शोणिताय ध्नन्ति, एवं हृदयाय, पित्ताय, वसाय, पिच्छाय, पुच्छाय, वालाय, शृङ्गाय, विषाणाय, दन्ताय, दंष्ट्रायै, नखाय, स्नायवे, अस्थ्ने, अस्थिमिजाय, अर्थाय, अनर्थाय, अप्येके हिंसितवान् अस्मान् इति वा घ्नन्ति, अप्येके हिनस्ति अस्मान् इति वा घ्नन्ति, अप्येके हिंसिष्यन्ति अस्मान् इति वा घ्नन्ति // 54 // III शब्दार्थ : से-मैं वह / बेमि-कहता हूं / अप्पेगे-कोई एक लोग। अच्चाए-अर्चना-देवी देवता की पूजा के लिए / हणंति-जीवों की हिंसा करते हैं / अप्पेगे-कोई एक / अजिणाए-चर्म के लिए / वहंति-जीवों का वध करते हैं / अप्पेगे-कोई एक / मंसाए वहंति-मांस के लिए प्राणियों को मारते हैं / उप्पेगे-कोई एक / सोणियाए वहंति-खून-शोणित के लिए वध करते हैं / एवं इसी प्रकार, कोई / हिययाए-हृदय के लिए / पित्ताए-पित्त के लिए / वसाए-चर्बी के लिए / पिच्छाए-पिच्छ-पंख के लिए | पुच्छाए-पूच्छ के लिए / बालाए-केशों के लिए / सिंगाए-शृंग-सींगो के लिए / विसाणाए-विषाण के लिए / दंताए-दांतों के लिए / दाढ़ाएदाढों के लिए / णहाए-नाखनों के लिए | पहारूणीए-स्नायु के लिए / अठिए-अस्थिओं के लिए / अट्ठिमिज्जाए-अस्थि और मज्जा के लिए / अट्ठाए-किसी प्रयोजन के लिए / अणट्ठाए-निष्प्रयोजन ही / अप्पेगे-कोई एक / हिंसिंसु मेत्ति वा-इसने मेरे स्वजन स्नेहिजनों की हिंसा की है, ऐसा मानकर / वहंति-सिंह, सर्प आदि जन्तुओं की हिंसा करते हैं / अप्पेगेकोई एक / हिंसंति मेत्ति वा वहंति-ये मुझे मारते हैं, ऐसा सोच कर सिंह-सर्प आदि का वध करते हैं / अप्पेगे-कोई एक / हिंसिस्संत्ति मेत्ति वा वहंति-यह प्राणी, भविष्य में मुझे मारेगें, ऐसा विचार करके सिंह-सर्प आदि प्राणियों के प्राणों का नाश करते हैं / IV सूत्रार्थ : मैं कहता हूं कि- कितनेक लोग पूजा (देह-दान) के लिये त्रसकायका वध करतें हैं कितनेक लोग चमडेके लिये वध करतें हैं, कितनेक लोग मांसके लिये वध करतें हैं, कितनेक लोग रुधिरके लिये वध करतें हैं इस प्रकार हृदय, पित्त, चरबी, पिंछे, पुच्छ, वाल, शृंग, विषाण, दांत, दाढा, नख, स्नायु, हड्डी, हड्डीमिंजके लिये वध करतें हैं, कितनेक लोग सकारण और कितनेक लोग अकारण हि वध करतें हैं... कितनेक लोग "हमको मारा" इस कारणसे वध करतें हैं, कितनेक लोग "हमको मारतें हैं" इस कारणसे वध करतें हैं और कितनेक लोग
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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