________________ 272 1 -1 - 6 - 2 (50) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन औदारिक या वैक्रय शरीर वहीं छूट जाता है / उस समय केवल तैजस और कार्मण शरीर ही उसके साथ रहता है, जो उसके किए हुए कर्मक अनुसार उसे (आत्माको) उस योनि तक पहुंचा देता है / वहां आत्मा जन्म धारण करता है और कार्मण शरीरके द्वारा वहां पर स्थित पुद्गलोंका आहार ग्रहण करके उसे औदारिक या वैक्रिय शरीरके रूप में परिणत करता है / इस प्रकार उसका उत्पन्न होना जन्म है और जिस स्थान में उत्पन्न होता है, वह स्थान योनि कहलाता तत्त्वार्थ सूत्र में उत्पत्ति स्थान तीन माने गए हैं-१-समूर्च्छन, २-गर्भाशय और 3औपपातिक / स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही योनि-उत्पत्ति स्थानमें स्थित औदारिक पुद्गलोंको सर्वप्रथम ग्रहण करके औदारिक शरीर रूपमें परिणत करना समूर्च्छन जन्म है / स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पत्ति स्थान-गर्भाशयमें स्थित रज-शुक्र (वीर्य) या शोणित के पुद्गलोंको पहले-पहल शरीर बनानेके हेतु ग्रहण करने का नाम गर्भज जन्म है / देव शय्या या नरक कुंभीमें स्थित वैक्रिय पुद्गलोंको प्रथम समयमें वैक्रिय शरीरका निर्माण करने के लिए ग्रहण करने के स्थान का नाम उपपात जन्म हैं। देव शय्या के ऊपर का भाग दिव्य वस्त्रसे प्रच्छन्न रहता है, उस प्रच्छन्न भाग में देवों का जन्म होता है और कुम्भी, वज्रमय कुम्भ जैसे स्थान, नारकोंका उपपात क्षेत्र हैं / इन उभय स्थानोमें स्थित वैक्रिय पुद्गलोंको देव और नारक ग्रहण करते हैं / इन उत्पत्ति स्थानोमें कौन कौन जीव जन्म लेते हैं, इसी बातको अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 50 // मंदस्स अवियाणओ // 50 // II संस्कृत-छाया : मन्दस्य अविजानतः // 50 // III शब्दार्थ : मंदस्स-मंद व्यक्ति का / अवियाणओ-जो तत्त्व से अनभिज्ञ है, उसका संसार में भ्रमण होता है / IV सूत्रार्थ : हितको नहिं जाननेवाले मंदको यह संसार होता है // 50 //