________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी-टीका म 1 - 1 - 6 - 1 (49) 271 गर्भज और औपपातिक / इन दोनों विचारधाराओंमें केवल संख्याका भेद दृष्टिगोचर होता है। परंतु वास्तवमें दोनोंमें सैद्धांतिक अंतर नहीं है / दोनों विचार एक-दूसरेसे विरोध नहीं रखते। क्योंकि-रसज, संस्वेदज, उद्भिदज एवं समूचनज, यह चारों भेद समूच्छन जीवोंके ही भेद हैं, तथा अंडज, पोतज और जरायुज ये तीनों गर्भज जीवों के भेद हैं और देव एवं नारकोंका उपपात से जन्म होने के कारण वे औपपातिक कहलाते हैं / अतः तीन और आठ भेदोंमें कोई अंतर नहीं है / यों कह सकते हैं कि- अस जीवों के मूल उत्पत्ति स्थान तीन प्रकारके हैं और आठ प्रकार उत्पत्ति स्थान उन्हीं के विशेष भेद हैं, जिससे साधारण व्यक्ति भी सुगमता से उनके स्वरूपको समझ सके / इससे स्पष्ट हो गया कि उत्पत्ति स्थानके तीन या आठ भेदों में कोई सैद्धांतिक भेद नहीं है / यह सभी उत्पत्ति स्थान जीवोंके कर्मों की विभिन्नता के प्रतीक है / प्रत्येक संसारी प्राणी अपने कृत कर्मक अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं / आत्म द्रव्यकी अपेक्षासे सब आत्माओं में समानता होने पर भी कर्म बंधनकी विभिन्नताके कारण कोई आत्मा विकासके शिखरपर आ पहुंचती है, तो कोई पतनके गड्ढे में जा गिरती है / आगममें भी कहा है कि अपने कृत कर्मके कारण कोई देवशय्यापर जन्म ग्रहण करता है, तो कोई कुंभी (नरक) में जा उपजता है / कोई एक असुरकाय में उत्पन्न होते हैं, तो कोई मनुष्य शरीर में भी क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण, चंडाल-बुक्कस आदि कुलोमें जन्म लेते हैं और कोई प्राणी पशुपक्षी, टीड -पतंग, मक्खी , मच्छर, चींटी आदि जंतुओकी योनिमें जन्म लेते हैं / इस तरह विभिन्न कर्मों में प्रवृत्तमान प्राणी संसारमें विभिन्न योनियोंमें जन्म ग्रहण करते रहते हैं / .. योनि और जन्म, यह दो शब्द हैं और दोनोंका अपना स्वतंत्र अर्थ है / यह आत्मा अपने पूर्व स्थानके आयुष्य कर्मको भोगकर अपने बांधे हुए कर्मक अनुसार जिस स्थानमें आकर उत्पन्न होता है, उसे योनि कहते हैं और उस योनिमें आकर अपने औदारिक या वैक्रिय शरीरके बनानेके लिए आत्मा औदारिक या वैक्रिय पुद्गलों का जो प्राथमिक स्थिति में ग्रहण करता है, उसे जन्म कहते हैं / इस तरह योनि और जन्म का आधेय-आधार संबंध है / योनि आधार है और जन्म आधेय है / जैनदर्शनमें शरीरके पांच भेद बताए गए हैं- १-औदारिक, २-वैक्रिय, 3-आहारक, ४-तैजस और ५-कार्मण इसमें आहारक शरीर विशिष्ट लब्धि युक्त मुनिको ही प्राप्त होता है और वैक्रिय थरीर देव और नारकी तथा लब्धिधारी मनुष्य तिर्यचोंको प्राप्त होता है / औदारिक शरीर मुनष्य और तिर्यञ्च गति में सभी जीवोंको प्राप्त होता है / तैजस और कार्मण शरीर संसारके सभी जीवोंमे पाया जाता है / औदारिक या वैक्रिय शरीरका कुछ समयके लिए अभाव भी पाया जाता है, परन्तु तैजस और कार्मण शरीर का संसार अवस्था में कभी भी अभाव नहीं होता / जब आत्मा एक योनिके आयुष्य कर्मको भोग लेता है, तो उसका उस योनिमें प्राप्त