SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 5 - 1 (40) 235 नहीं करता है / एसोवरए-वही उपरत-संवृत है / एत्थोवरए-जिन मार्ग में ही ऐसा त्यागी मिलता है, अन्यत्र नहीं / एस-यही त्यागी / अणगारेति-अनगार / पवुच्चई-कहा जाता है। IV सूत्रार्थ : प्रव्रज्याको स्वीकार करके वनस्पतिको दुःख नहिं करुंगा. बुद्धिशाली साधु जीवोंको पहचान करके, अभय (संयम) को जानकरके, वनस्पतिके आरंभको जो नहि करे, वह हि उपरत है, और वह हि जिनमतमें परमार्थसे उपरत है, वह हि अणगार - साधु कहा जाता है... V टीका-अनुवाद : . विषय - सुखकी इच्छावाले जीव वनस्पतिकाय जीवोंको दुःख देते हैं, और दुःखवाले संसार समुदमें परिभ्रमणा करते हैं... इस प्रकार कडवे संसारमें परिभमणा स्वरूप फलको जानकर, सभी वनस्पतिकाय जीवोंको पीडा देनेवाले आरंभका त्याग करतें हैं, वह इस प्रकारयह संसार कटु-विपाक याने दुःखदायक है, अतः अब मैं वनस्पतिका छेदन-भेदन स्वरूप दुःखदायक समारंभ मन-वचन-कायसे नहिं करुंगा, अन्यके द्वारा नहिं करवाउंगा और वनस्पतिके आरंभको करनेवाले अन्य की अनुमोदना नहिं करुंगा... इस प्रकार सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्माने बताये प्रव्रज्या-संयम मार्गको स्वीकार करके मैं सभी आरंभ-समारंभका त्याग करके वनस्पतिकायका आरंभ नहिं करुंगा... इस वाक्यसे संयम-क्रिया का निर्देश (कथन) कीया... किंतु केवल (मात्र) संयम-क्रियासे हि मोक्ष नहिं होता है, साथमें ज्ञान भी चाहिये... कहा भी है कि- ज्ञान एवं क्रियासे मोभ होता है... क्रिया रहित ज्ञान तथा ज्ञान रहित क्रिया... दोनों अकेले जन्म-मरणके दुःखोंका नाश करनेमें समर्थ नहिं हैं, अतः विशिष्ट मोक्षके कारण ज्ञानका प्रतिपादन करते हुए कहतें हैं कि- हे शिष्य ! प्रव्रज्या स्वीकार करके, जीव आदि पदार्थोको जानकर मतिमान-साधु मोक्षको प्राप्त करता है... इससे यह कहा कि- सम्यग् ज्ञानके साथ हि क्रिया मोक्ष-फल दायक बनती है... जहां भय (डर) नहिं है ऐसे सत्तरह (17) प्रकारके संयम (अभय) से हि सकल जीवोंका रक्षण होता है, और संसार-समुद्रसे पार पाया जाता है ऐसा जानकर वनस्पतिकायके आरंभसे विरमण करना चाहिये... वनस्पतिके आरंभसे होनेवाले कडवे फलको जाननेवाला साधु हि वनस्पतिके आरंभ को नहिं करता... ज्ञानके विना क्रिया करनेवाला अंधकी तरह अभिलषित मोक्ष स्थानको कभी भी प्राप्त नहिं कर शकता यह यहां सूत्रका सार है... और क्रिया रहित अकेले ज्ञानसे भी पंगु-लंगडेकी तरह मोक्ष नहिं होता... क्योंकि- अग्निसे सलगते हुए घरमें आंखोसे मार्गको देखनेवाला पंगु-लंगडा आदमी बहार निकलना चाहे तो भी पांउके अभावमें बहार निकल नहिं शकता... इस प्रकार ज्ञानसे जानकर एवं संयम-क्रियाको स्वीकार करके हि वनस्पतिके आरंभका त्याग करना चाहिये...
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy