________________ 234 // 1-1-5-1(40) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वनस्पतिकाय के शस्त्र हैं... अब विभाग द्रव्य शस्त्रका स्वरूप कहतें हैं... नि. 150 1. स्वकायशस्त्र... लकडी, सोटी आदि... 2. परकायशस्त्र... पत्थर, अग्नि आदि. 3. उभयकायशस्त्र... दात्र, दात्रिका, कुहाडा (कुल्हाडा) यह सभी द्रव्य शस्त्र कहे, अब भावशस्त्र कहतें हैं... भावशस्त्र = दुष्ट मन वचन एवं कायाकी चेष्टा=क्रिया स्वरूप असंयम हि भावशास्त्र है... अब सभी नियुक्ति गाथाओंके अर्थका उपसंहार सूचक अंतिम गाथा समाप्ति कहतें हैं... नि. 151 वनस्पतिकायके अधिकारमें कहे गये द्वारोंके अलावा शेष रहे द्वारोंका अर्थ पृथ्वीकायके अधिकारमें कहे गये द्वारोंके समान हि समझ लीजीयेगा... इस प्रकार वनस्पतिकायके अधिकारमें नियुक्ति पूर्ण हुइ... ___ अब सूत्रानुगम में स्पष्ट रीतसे (बोलनेमें स्खलना न हो इस प्रकारसे) सूत्रका उच्चार करना चाहिये... वह सूत्र इस प्रकार है... I सूत्र | // 1 // // 40 // तं नो करिस्सामि सुमट्ठाए, मत्ता मईणं, अभयं विदित्ता, तं जे नो करए, एसोवरए. एत्थोवरए, एस अणगरे त्ति पवुच्चइ // 40 // II संस्कृत-छाया : तत् न करिष्यामि समुत्थाय, मत्वा मतिमान्, अभयं विदित्वा, तम् यः न कुर्यात् (करोति) एष: उपरतः, एतस्मिन् उपरतः, एषः अनगारः इति प्रोच्यते // 40 // III शब्दार्थ : तं-उस वनस्पतिकाय का आरम्भ / णो करिस्सामि-नहीं करूंगा / समुट्ठाए-सम्यक् प्रव्रजित होकर / मत्ता-जीवादि पदार्थों को जानकर / मइम-हे मतिमान् शिष्य ! अभयं-संयम को / विदित्ता-जानकर / तं-उस वनस्पतिकाय के आरंभ-हिंसा को। जे-जो। णो करए