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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 5 - 1 (40) // 227 नि. 131 जिस प्रकार अनेक सरसव (राइ) का पिंड बनाने से, वे सभी सरसव विभिन्न होते हुए भी एक हो, एसा लगता है... अथवा रज्जु - दोरडी - रस्सीमें अनेक धागे - तंत होते हुए भी वह रस्सी, एक हि दिखती है, ठीक इसी प्रकार वृक्ष के थड, डाली आदिमें प्रत्येक वनस्पतिकायके जीव, अनेक होते हुए भी, वह वृक्षका थड, डाली, आदि एक हो, ऐसा दिखता है... अर्थात् वृक्षके स्कंध (थड), शाखा - डाली में भी प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव असंख्य होते हैं... अब इसी अर्थमें अन्य दृष्टांत कहतें हैं... नि. 132 जिस प्रकार तिल-पापडी बहोत तिलके दानेसे बनी हुइ होती है, वैसे हि प्रत्येक वनस्पतिकाय स्वरूप वृक्ष भी अनेक प्रत्येक वनस्पतिकायके शरीरोंका समूह है... अब प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव कहां एक और कहां अनेक होते हैं वह कहते हैं नि. 133 विविध प्रकारके आकारके पत्ते एक जीवसे अधिष्ठित होतें हैं, और ताल, सरल, नारीयेल आदि वृक्षोंमें भी एक हि जीव अधिष्ठित होता है, और शेष वृक्षोमें अनेक जीव होतें हैं... अब प्रत्येक वनस्पतिकाय जीवोंकी संख्या कहतें हैं... नि. 134 1. पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव... घनीकृत लोकाकाशकी श्रेणीके असंख्येय भागमें रहे हुए आकाश प्रदेशोंकी राशि = संख्या प्रमाण होते हैं, और वे पर्याप्त बादर अग्निकाय जीवोंसे असंख्यगुण अधिक हैं... तथा अपर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव असंख्य लोकाकाशके प्रदेश राशि प्रमाण है... और वे अपर्याप्त बादर तेउकायकी संख्यासे असंख्यगुण अधिक हैं... प्रत्येक वनस्पतिकाय अपर्याप्त या पर्याप्त, सूक्ष्म होतें नहिं हैं... वे केवल बादर हि होतें हैं... और साधारण वनस्पतिकाय सामान्यसे अनंत हैं... और वे सूक्ष्म और बादर दो प्रकारसे हैं, और पुनः वे दोनों अपर्याप्त एवं पर्याप्त भेदसे दो प्रकारके होते हैं और वे चारों राशिके हर एक भेदमें अनंतलोकाकाशके प्रदेशोंकी संख्या प्रमाण अवंत जीव हैं... वे इस प्रकार- पर्याप्त बादर साधारण वनस्पतिकाय से अपर्याप्त बादर साधारण वनस्पतिकाय असंख्यगुण अधिक हैं... और अपर्याप्त बादर साधारण वनस्पतिकाय जीवोंसे अपर्याप्त सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय जीव असंख्यगुण अधिक हैं, तथा अपर्याप्त सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय से, पर्याप्त सुक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय जीव असंख्यगण अधिक हैं...
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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