________________ 216 // 1-1-4-6 (39) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 जानता, तब तक प्रमाद के कारण अग्नि का आरम्भ करता है / परन्तु अग्निकाय का सम्यक्तया ज्ञान होने के बाद, वह साधु, उसका सर्वथा परित्याग कर देता है अर्थात् पूर्व समयमें जो आरम्भ किया है, उसका पश्चाताप करता है, और भविष्य के लिए उसका त्याग करके विवेक पूर्वक संयम में प्रवृत्त होता है / अग्निकाय के संबन्ध में जैनेतर संप्रदाय की जो मान्यताएं हैं, उसे सूत्रकार महर्षि स्वयं हि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 6 // // 7 // ____ लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मो त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विसवसवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगसवे पाणे विहिंसंति / तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जाइ मरण मोयणाए दुक्खपडियायहेउं से सयमेव अगणिसत्थं समारभड़, अण्णेहिं वा अगणिसत्थं समारंभावेड, अण्णे वा अगणिसत्थं समारभमाणे समणुजाणइ / तं से अहियाए, तं से अबोहियाए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अणगाराणं इहमेगेसिं नायं भवति, एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए, इच्चत्थं गडिए लोए जमिणं विसवसवेहिं सत्थेहि अगणिकम्मसमारंभमाणे अण्णे अणेगसवे पाणे विहिंसड़ / / 37 // II संस्कृत-छाया : लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः वयं इति एके प्रवदन्तः, यदिदं विरूपसपैः शरैः अग्निकर्म समारम्भेण अग्निशखं समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणिनः विहिनस्ति, तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता, अस्य चैव जीवितव्यस्य परिवन्दन-मानन-पूजनार्थ जाति-मरण मोचनार्थ, दुःखप्रतिघात हेतुं, सः स्वयमेव अग्निशसं समारभते, अन्यैः वा अग्निशसं समारम्भयति, अन्यान् वा अग्निशसं समारभमाणान् समनुजानीते, तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोधिलाभाय, सः तद् सम्बुध्यमानः आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां वा, इह एकेषां ज्ञातं भवति - एषः खलु ग्रन्थः, एषः खलु मोहः, एषः खलु मारः, एषः खलु नरकः, इत्यर्थं गृद्धः लोकः यदिदं विसप-सपैः शखैः अग्निकर्मसमारम्भमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणिन: विहिनस्ति // 30 // III शब्दार्थ : लज्जमाणा-स्वागमविहित अनुष्ठान करते हुए अथवा सावद्यानुष्ठान के कारण लज्जा का अनुभव करते हुए / पुढो-विभिन्न मतवालों को / पास-हे शिष्य ! देख / अणगारामोत्तिहम अनगार हैं. इस प्रकार / एगे-कई एक वादी / पवदमाणा-बोलते हए। जमिणं-जो.यह