SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 214 1 -1-4-5 (38) श्री राईन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रवृत्त होता है / और विषय-कषाय से युक्त होकर रंधन, पाचन, आताप प्रकाश आदि के लिए . अग्निकाय का आरम्भ करता है, इसलिए उसकी इस प्रवृत्ति को अकुशल प्रवृत्ति कहा है / और इस प्रवृत्ति से प्राणियों को दण्डित होने में वह व्यक्ति कारण है, इसलिए उसे दण्ड रूप भी कहा है / ऐसा देखा गया है कि- वस्तु के गुण-दोष या प्रवृत्ति के अनुसार वस्तु का नाम रख दिया जाता है / गुणानुसारी नाम करण की पद्धति पुरातन काल से चली आ रही है / जैसे घृत आयुवर्द्धक है, इसलिए उसका आयु शब्द से निर्देश किया जाता है-"आयुर्वे घृतम्" इसी तरह प्रमादी एवं गणार्थी जीव अग्निकाय के आरम्भ-समारम्भ में प्रवत्त होकर अग्निकायिक एवं उन के आश्रय में रहे हुए अन्य स-स्थावर जीवों को दंडित (पीडित) करते हैं, इसलिए उन्हें दण्ड कहा गया है / प्रमादी और गुणार्थी व्यक्ति, दण्ड रूप कहा गया है / दण्ड से दुःखों की उत्पत्ति होती है, इस लिए सूत्रकार दंडत्व के परित्याग की बात, आगे के सूत्रसे कहेंगे... I सूत्र // 5 // // 36 || तं परिण्णाय मेहावी, इयाणिं बो जमहं पुल्वमकासी पमाएणं || 36 || II संस्कृत-छाया : तं परिज्ञाय मेधावी, इदानीं न, यं अहं पर्व अकार्षं प्रमादेन || 36 || III शब्दार्थ : तं-इस अग्निकाय के आरम्भ को / परिण्णाय-जानकर / मेहावी-बद्धिमान यह निश्चय करे / जं-जिस आरम्भ को / पमाएणं-प्रमाद से / अहं-मैंने / पुष्वं-प्रथम / अकासी-किया था, उसको / इयाणिं-इस समय / णो-नहीं करूंगा / / IV सूत्रार्थ : उस दंडको जानकर मेधावी, जो मैंने प्रमादसे पूर्वकालमें किया है, वह अब नहिं करुंगा || 3 || V टीका-अनुवाद : उस अग्निकायके समारंभका दंड स्वरूप फलको, ज्ञ परिज्ञासे जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञासे त्याग करके मेधावी = साधु, अग्निशस्त्रके समारंभका त्याग करता है... वह इस प्रकार- मैंने विषय और प्रमादसे व्याकुल चित्तवाला होकर, पूर्वकालमें बहोत प्रकार से अग्निकायका समारंभ कीया था, किंतु अब जिनवचनके ज्ञानसे, अग्निकायके समारंभ स्वरूप
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy