________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1 - 4 - 4 (34) 213 और काय योग का निरोध करना और उससे जो लब्धि प्राप्त हो उसका आत्मिक अभ्युदय * के लिए उपयोग करना / इससे स्पष्ट हो गया कि अग्निकाय का आरम्भ-समारम्भ अनर्थ का कारण है / फिर भी कई विषयासक्त एवं प्रमादी जीव विषय-वासना एवं प्रमाद के वश होकर अग्निकाय का आरम्भ-समारम्भ करते हैं / इसी बात को सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... I सूत्र // 4 // // 35 // जे पमत्ते गुणट्ठीए, से ह दंडे ति पवुच्चइ | // 35 // II संस्कृत-छाया : यः प्रमत्तः गुणार्थी, सः खु दण्डः इति प्रोच्यते // 35 // III शब्दार्थ : जे-जो व्यक्ति / पमत्ते-प्रमादी / गुणट्ठीए-गुणार्थी है / से-वह / ह-निश्चय ही / दंडेत्ति-दण्ड रूप / पवुच्चइ-कहा जाता है / IV सूत्रार्थ : रसोड़ बनाना इत्यादि गुणके कामनावाले जो प्रमादी है, वह हि दंड है... ऐसा कहा गया है... | // 35 // v टीका-अनुवाद : जो मनुष्य मद्य-विषय आदि प्रमादसे असंयत है एवं रसोइ बनाना, पकाना, प्रकाश करना तथा आतापन आदि अग्निके गुणोके प्रयोजनवाला है वह हि दुष्ट मन वचन एवं कायावाला है, और अग्निशस्त्रका समारंभके द्वारा जीवोंको दंड = पीडा का कारण बननेसे उस मनुष्यको "दंड' कहा गया है जैसे घृत (घी) आदिको आयुष्य कहतें है, वैसे... यहां कारणमें कार्यका उपचार कीया गया है... अब जीस कारणसे जो लोग, ऐसे दंड स्वरूप हैं, उन्हे क्या करना चाहिये ? यह बात, अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- जो व्यक्ति प्रमत्त और गुणार्थी है, वह दण्ड रूप है / क्योंकि- प्रमाद एवं गुणार्थिता, इन दो कारणों से ही व्यक्ति अग्नि के आरम्भ में