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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका // 1-1 - 4 - 2 (33) 207 करके वनस्पतिको जलानेवाला अग्नि बहोत प्रकारके जीवोंका विनाश करनेवाला होता है... क्योंकि- वनस्पतिकायमें कृमि, पिपीलिका (चिंटीया) भ्रमर, कबूतर और जंगली जानवर आदि होतें हैं, तथा वृक्षके कोटर (बखोल) में पृथ्वीकाय भी होता है, और अवश्याय (धूम्मस) स्वरूप अप्काय होता है, तथा कुछ चंचल स्वभावसे कोमल किशलय = पत्ते को कंपित करनेवाला वायु भी होता है, अतः अग्निके समारंभमें प्रवृत्त मनुष्य इन सभी जीवोंका विनाश करता है... इसलिये यह सभी बातोंका सूचन करनेके लिये सूत्रकारने अग्निको दीर्घलोकशस्त्र कहा है... और कहा भी है कि- तीक्ष्ण, सर्वप्रकारका शस्त्र और चारों और से दुःखदायक ऐसे अग्निको साधु-लोग जलातें नहिं है और चाहतें भी नहिं है... पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण, उपर और नीचे इस प्रकार सभी औरसें यह अग्नि, जीवोंका नाश करता है इस बातमें जरा भी संशय नहिं है, अतः संयमी-साधु प्रकाशके लिये और भोजन पकानेके लिये अग्निको जलातें नहिं है... अथवा तो बादर पर्याप्त अग्निकाय थोडे हैं... शेष पृथ्वीकाय आदि एकेंद्रिय जीव (अधिक) बहोत हैं... तथा अग्निकाय की भवस्थिति (आयुष्य) भी तीन अहोरात्र प्रमाण अति अल्प है, जब कि- पृथ्वीकायका बाइस (22) हजार वर्ष, अप्कायका सात (7) हजार वर्ष, वायकायका तीन (3) हजार वर्ष और वनस्पतिकायका आयष्य दश (10) हजार वर्ष प्रमाण लंबा है... अतः दीर्घलोक याने पृथ्वीकायादि जीवोंका शस्त्र अग्नि है, अतः इस अग्निको मुनि वर्णादिसे जानता है... क्षेत्रज्ञ = निपुण मुनि अथवा तो खेदज्ञ याने अग्निके व्यापार = आरंभको जाननेवाला हि मुनी होता है... वह इस प्रकार, जैसे कि- अग्नि सभी जीवोंको जलाता है... अग्नि - रसोई पकाना आदि अनेक शक्तिवाला है... अग्नि - श्रेष्ठ मणीकी तरह अतिशय चमकता है... ऐसे अग्निका आरंभ साधुओंको उचित नहिं है... यह बात जो मुमुक्षु जानता है वह हि मुनि खेदज्ञ होता है... अब जो मुनि दोघलोकशस्त्र (अग्नि) का खेदज्ञ है, वह हि मुनि सत्तरह (17) प्रकारके संयम स्वरूप अशस्त्रका खेदज्ञ है... क्योंकि- संयम कीसी भी जीवको पीडा नहिं पहुंचाता अतः संयमको अशस्त्र कहतें हैं... इस प्रकार सभी जीवोंको अभयदान देनेवाले इस संयमके अनुष्ठानसे हि अग्निकाय जीवोंके समारंभका त्याग कर शकतें हैं... और पृथ्वीकाय आंदिके समारंभका भी त्याग हो शकता है... इसी प्रकार मुनि संयममें निपुणमतिवाला होता है... ओर निपुणमतिवाला होनेके कारणसे हि परमार्थको जाननेवाला मुनि अग्निकायके आरंभका त्याग करके संयमके अनुष्ठान में प्रवृत्त होता है...
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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