SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 206 1 - 1 - 4 - 2 (33) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः || 33 || III शब्दार्थ : जे-जो / दीह लोग सत्थस्स-दीर्घलोक याने वनस्पति के शस्त्र-अग्नि का। खेयण्णेज्ञाता होता है / से-वह / असत्थस्स-अशस्त्र-संयम का / खेयण्णे-ज्ञाता होता है। से-वह / दीह लोग सत्थस्स-अग्नि का / खेयण्णे-ज्ञाता होता है / IV सूत्रार्थ : जो साधु दीर्घलोक (वनस्पति) के शस्त्र (अग्नि) का खेदज्ञ है वह अशस्त्र (संयम) का खेदज्ञ है, और जो मुनि अशस्त्र (संयम) का खेदज्ञ है वह दीर्घलोक (वनस्पति) के शस्त्र (अग्नि) का खेदज्ञ है... || 33 || v टीका-अनुवाद : दीर्घलोक याने वनस्पतिकाय... क्योंकि- शरीरकी उंचाई तथा स्वकाय स्थिति शेष एकेंद्रिय पृथ्वीकाय आदिसे वनस्पतिकायकी दीर्घ याने लंबी होती है, इसलिये वनस्पतिकायको दीर्घलोक कहतें हैं... आगम सूत्रमें भी कहा है कि- हे भगवन् ! वनस्पतिकायकी स्वकाय स्थिति कितनी है ? उत्तर- हे गौतम ! अनंतकाल याने अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तथा क्षेत्रसे अनंतलोक, असंख्य पुद्गल परावर्त... और वे पुद्गल परावर्त, आवलिका के असंख्येय भागके समय प्रमाण जानीएगा... और परिमाणसे हे भगवन् ! वर्तमानकालमें वनस्पति कायके जीवोका अभाव कितने काल तक हो शकता है ? हे गौतम ! वर्तमानकालमें वनस्पतिकाय जीवोंका निर्लेपना (अभाव) कभी नहिं होता है... और शरीरकी उंचाइकी दृष्टि से भी वनस्पतिकाय दीर्घ = लंबा (उंचा) है... हे भगवन् ! वनस्पतिकायकी शरीर-अवगाहना कितनी महान् (बडी) होती है ? हे गौतम ! वनस्पतिकायके शरीरकी अवगाहना एक हजार योजनसे कुछ (थोडा सा) अधिक होती है... इतनी स्वकायस्थिति और शरीरकी उंचाइ अन्य एकेंद्रिय पृथ्वीकाय आदिको नहिं होती है... इसीलिये हि वनस्पतिकायको दीर्घलोक कहतें हैं... और वनस्पतिका शस्त्र अग्नि है... क्योंकि- बढती हुइ ज्वालाके समूहवाला अग्नि ही सभी वृक्षों (वनस्पति) को नाश (नष्ट) करनेमें समर्थ है... इसीलिये वनस्पतिका नाश करनेके कारणसे अग्नि ही वनस्पतिका शस्त्र प्रश्न- तो फिर सर्वलोक प्रसिद्ध ऐसा अग्नि शब्दका प्रयोग क्यों नहिं किया ? अथवा तो कौनसे प्रयोजनको लेकर आपने अग्निको दीर्घलोक-शस्त्र कहा है ? उत्तर- विचारणा (पर्यालोचन) पूर्वक कहा है... बिना बिचारे नहिं कहा है... वह इस प्रकार उत्पन्न हुआ, अतिशय जलता हुआ अग्नि सभी जीवोंका विनाश करता है, और विशेष
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy