SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 卐१-१-२-५ (१८)卐 155 वायुकाय और वनस्पतिकाय के संबंध में भी जानना चाहिए / एकेंद्रिय जीव असंज्ञी हैं, उनको मन होता नहीं / फिर वे सुख-दुःख का संवेदन कैसे करते हैं ? अतः यह कहना कहां तक उचित है ? कि-पृथ्वीकाय का छेदन-भेदन करने पर पृथ्वीकायिक जीवों को वेदना होती है ? इसका समाधान यह है कि-मन के दो भेद माने गए हैं-१-द्रव्य मन और २-भाव मन / असंज्ञी प्राणियों में द्रव्य मन नहीं होता, परन्तु भाव मन उन में भी होता है / इस लिए अनेक तरह शत्रों से जब पृथ्वीकाय का छेदन-भेदन किया जाता है, तो उन्हें दुःखानुभूति होती है / उनकी चेतना अव्यक्त होने के कारण वे अपनी संवेदना की अभिव्यक्ति नहीं कर पाते / / ___ पृथ्वीकाय की हिंसा से अष्ट कर्म का बन्ध कैसे होता है ? इस का समाधान यह है कि- हिंसक प्राणी में ज्ञानादि का क्षयोपशम भाव से जो थोड़ा विकास है, विषयसुख के कारण वह भी मन्द पड़ जाता है / इसी तरह अन्य कर्मों के संबन्ध में भी समझ लेना चाहिए. / इसलिए सूत्रकार ने कहा है कि पृथ्वीकाय का आरंभ-समारंभ आठ कर्मों की ग्रंथि रूप है, मोहरूप है मृत्यु रूप है, तथा नरक का कारण है / . इस तरह प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि पृथ्वीकाय सजीव है और अनेक तरह के शस्त्रों के प्रयोग से उसे वेदना होती है और उसकी हिंसा करनेवाले आत्मा को भविष्य में अहित का लाभ होता है तथा बोध की प्राप्ति नहीं होती है / इसलिए मुमुक्षु को पृथ्वीकाय की हिंसा से विरत रहना चाहिए / इस बात को समझाते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... . I सूत्र // 5 // // 18 // एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चते आरंभा परिण्णाता भवंति, तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं समारंभेजा, नेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेज्जा, नेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते पुढविकम्म-समारंभा परिण्णाता भवंति, से ह मुणी परिण्णात-कम्मे त्ति बेमि // 18 // II संस्कृत-छाया : अत्र शत्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति / तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथिवी शखं समारभेत, नैव अन्यैः शस्त्रं समारम्भयेत्, नैव अन्यान् पृथिवी शस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात्, यस्यैते पृथिवीकर्म समारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, सः खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि // 18 //
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy