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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-1-2 - 4 (17) 151 जैसे इस व्यक्त चेतना वाले व्यक्ति को इन कारणों से स्पष्ट वेदना की अनुभूति होती है, उसी तरह पृथ्वीकाय के जीवों को भी वेदना होती है, परन्तु वे उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते / पृथ्वीकाय के जीवों को जो वेदना होती है, उसे और स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार अब तीसरा उदाहरण देते हैं-अप्पेगे-कोई पुरुष किसी व्यक्ति को इतना मारे कि- / संपमारएमुर्छित कर दे / अप्पेगे-कोई व्यक्ति किसी को मार-मार कर / उद्दवए-उसे-प्राणों से पृथक कर दे / जैसे इन प्राणियों को मूर्छित होने एवं मरने के पूर्व जो अव्यक्त वेदना होती है, वैसी ही अव्यक्त वेदना पृथ्वीकाय के जीवों को होती है / परन्तु अज्ञानी जीव इस रहस्य को नहीं जानतें, इसलिए वे रात-दिन हिंसा में प्रवृत्ति करते हैं / इसी बात को सूत्रकार अपनी भाषा में कहते हैं- इत्थं-इस पृथ्वीकाय में / सत्थं समारम्भमाणस्स-शस्त्र का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को / इच्चेते-इस प्रकार के / आरम्भा-आरंभ खनन कृषि आदि सावध व्यापार में। अपरिण्णाता-अपरिज्ञात / भवंति-होते हैं / IV सूत्रार्थ : पृथ्वीकायका समारंभ उस हिंसक जीवके अहितके लिये होता है, अबोधिके लिये होता है... जो साधु यह अच्छी तरहसे समझता है वह सम्यगदर्शनादि रत्नत्रयका स्वीकार करके तीर्थंकर और साधुओंके मुखसे सुनकर यह जानते है कि- यह पृथ्वीकायका समारंभ मोह है, मार है, नरक है, फिर भी आहारादिमें आसक्त लोग विरूप प्रकारके शस्त्रोंसे पृथ्वीकायकर्मके * समारंभसे पृथ्वीशस्त्रका प्रयोग करनेवाले वे लोग अन्य अनेक प्रकारके जीवोंकी हिंसा करते हैं... हे शिष्य ! अब जो मैं कहता हुं वह सुनो... कोइक जीव, 1 अंधेको भेदे - मारे, कोइक छेदे, 2 कोइक पाउंको भेदे और छेदे, 3 कोइक गुल्फको भेदे और छेदे, कोइक जंधाको भेदे और छेदे, 4 कोइक जानुको भेदे और छेदे, 5 कोइक उरु (साथल) को भेदे और छेड़े, 7 केडको भेदे और छेदे, 8 नाभिको भेदे और छेदे, इसी प्रकार 9 उदर, 10 पडखे, 11 पीठ, 12 छाती, 13 हृदय, 14 स्तन, 15 खभे, 16 भुजा, 17 हाथ, 18 अंगुलीयां, 19 नख, 20 गरदन, 21 दाढी, 22 होठ, 23 दांत, 24 जीभ, 25 तालु, 26 गाल, 27 गंडस्थल 28 कान, 29 नाक, 30 आंखें, 31 भूकुटी, 32 ललाट, एवं 33 मस्तकको कोइक मनुष्य भेदे और छेदे, यावत् कोइक मनुष्य मूर्छित करे एवं कोइक प्राणनाश स्वरूप मरण प्राप्त करावे... इस प्रकार पृथ्वीकाय-शस्त्रका प्रयोग करनेवाले अज्ञानी जीवने, यह सभी आरंभ• समारंभ अच्छी तरहसे जाने-समझे नहिं है... | // 17 //
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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