________________ 148 म 1-1-2 - 4 (17) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अप्पेगे उदरमब्भे अप्पेगे उदरमच्छे अप्पेगे पासमब्भे अप्पेगे पासमच्छे अप्पेगे पिट्ठमब्भे अप्पेगे पिङमच्छे अप्पेगे उरमब्भे अप्पेगे उरमच्छे अप्पेगे हिययमब्भे अप्पेगे हिययमच्छे अप्पेगे थणमब्भे अप्पेगे थणमच्छे अप्पेगे खंधमब्भे अप्पेगे खंधमच्छे अप्पेगे बाहुमब्भे अप्पेगे बाहुमच्छे अप्पेगे हत्थमब्भे अप्पेगे हत्थमच्छे अप्पेगे अंगुलिमब्भे अप्पेगे अंगुलिमच्छे अप्पेगे नहमब्भे अप्पेगे नहमच्छे अप्पेगे गीवमब्भे अप्पेगे गीवमच्छे अप्पेगे हणुमब्भे अप्पेगे हणुमच्छे अप्पेगे होहमभे अप्पेगे होडमच्छे अप्पेगे दंतमब्भे अप्पेगे दंतमच्छे अप्पेगे जिब्भमब्भे अप्पेगे जिब्भमच्छे अप्पेगे तालुमब्भे अप्पेगे तालुमच्छे अप्पेगे गलमब्भे अप्पेगे गलमच्छे अप्पेगे गंडमब्भे अप्पेगे गंडमच्छे अप्पेगे कण्णमब्भे अप्पेगे कण्णमच्छे अप्पेगे नासमब्भे अप्पेगे नासमच्छे अप्पेगे अच्छिमब्भे अप्पेगे अच्छिमच्छे अप्पेगे भमुहमब्भे अप्पेगे भमुहमच्छे अप्पेगे निडालमब्भे अप्पेगे निडालमच्छे अप्पेगे सीसमब्भे अप्पेगे सीसमच्छे अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए इत्थं सत्थं समारंभमाणस्स इच्चते आरंभा अपरिण्णाता भवंति // 17 // II संस्कृत-छाया : तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोधये, स: तं संबुध्यमान: आदानीयं समुत्थाय, श्रुत्वा खलु भगवतोऽनगाराणां इह एकेषां ज्ञातं भवित-एष खलु ग्रन्थः, एषः खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरफः, इत्येवमर्थम् गृद्धः लोकः, यदिदं विरूपरूपैः शरैः पृथिवीकर्म