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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1-2-1(14) 131 अंब कालसे पृथ्वीकायका परिमाण कहते हैं... नि. 90 पृथ्वीकायमें प्रति समय जीवोंका 1. प्रवेश और 2. निर्गमन... विवक्षित समयमें पृथ्वीकाय जीवोंकी संख्या 3. और पृथ्वीकाय जीवोंकी स्वकाय स्थिति... 4. इन चार विकल्पोंको कालके माध्यम से कहते हैं... वे इस प्रकार- प्रति समय असंख्य लोकाकाशके प्रदेशोंकी संख्या प्रमाण असंख्य पृथ्वीकाय जीव प्रति समय उत्पन्न होते हैं और मरते है... पृथ्वीकाय स्वरूप पाये हुए जीव भी असंख्य लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है, और स्वकाय स्थिति याने पृथ्वीकाय जीव मरकर पुनः पुनः पृथ्वीकायमें असंख्य लोकाकाशके प्रदेश संख्या प्रमाण उत्पन्न होते हैं... इस प्रकार क्षेत्र और कालसे पृथ्वीकायका परिमाण कहकर उनकी अवगाहना कहते हुए कहते हैं कि नि. 11 बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय जिस आकाश प्रदेश में रहे हुए है उसी आकाश प्रदेशमें अन्य बादर पृथ्वीकायके शरीर भी रहे हुए है... शेष अपर्याप्त पृथ्वीकायके जीवों, पर्याप्त पृथ्वीकायको आश्रय करके पूर्वोक्त प्रक्रियासे वहीं पर्याप्त जीवके साथ रहे हुए हैं... और सूक्ष्म जीवों तो संपूर्ण लोकाकाशमें रहे हुए हैं... अब उपभोग द्वार कहते हैं... नि. 92/93 पृथ्वीकायका उपभोग निम्न प्रकारसे मनुष्य करता है... जैसे कि- चलना, खडे रहना, बैठना, सोना, कृतक-पुतला (पुतक) करण, मल विसर्जन, मूत्र विसर्जन, वस्त्र-पात्रादिको रखना, लेप, शस्त्र, आभूषण, खरीदना-बेचना. कृषी-कर्म (खेती), पात्र-बर्तन बनाना इत्यादि प्रकार... जब ऐसा है तो अब क्या ? अतः कहते हैं कि नि. 94 यह पूर्वकी गाथामें कहे गये कारणोंसे पृथ्वीकाय जीवोंकी हिंसा करते हैं और साता (सुख) के लिये दूसरे जीवोंको दुःख देते हैं... इन चलना-घूमना इत्यादि कारणोंसे पृथ्वीकायकी हिंसा करते हैं, और थोडे दिनके सुंदर भोगसुखोंकी आशामें इंद्रियोंके विकारोंसे परवश चित्तवाले लोग, पृथ्वीकायको दुःख देतें है... और पृथ्वीकायके आश्रित जीवोंकी अशाता स्वरूप दुःखोंकी उदीरणा करते हैं... इससे
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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