________________ 126 #१-१-२-१(१४)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 और मिश्र भेदवाली होती है, तथा उनमें भी शीत उष्ण और शीतोष्ण इत्यादि अनेक भेद होते हैं... इसी बातको पुनः नियुक्तिकार स्वयं कहते हैं... नि. 78 एक एक वर्ण गंध रस स्पर्शमें विविध प्रकारसे अनेक भेद होते हैं... वे इस प्रकार... जैसे कि- काला वर्ण-भंवरा, कोयला, कोकिलपक्षी, गवल और काजलमें भिन्न भिन्न प्रकारका होता है... इस प्रकार कृष्ण, कृष्णतर, कृष्णतम वगैरह... इस प्रकार नील आदि वर्गों में भी समझ लीजीयेगा... इसी प्रकार रस गंध एवं स्पर्शमें भी सभी प्रकारके संभवित भेद समझ लें... और वर्ण आदिके परस्पर संयोगसे भी धूसर, केशर, कबूंरित (काबरचितसँ) आदि वर्णोतरोंकी उत्पत्ति होती है... इस प्रकारकी उत्प्रेक्षासे प्रत्येक वर्णादिका प्रकर्ष अप्रकर्ष और संमिश्रणसे बहोत भेद होते हैं... अब पृथ्वीकाय के और भी प्रर्याप्तक आदि प्रकारसे भेद प्रभेद कहते हैं... नि. 79 बादर पृथ्वीकायके दो भेद- पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायके भी दो भेद- पर्याप्त और अपर्याप्त यहां दो दो भेद जरूर है परंतु वे जीव स्वरूप से परस्पर समान नहि हैं क्योंकि- बादर एक पर्याप्त जीवका आश्रय लेकर असंख्य अपर्याप्त बादर जीव होते हैं और एक सूक्ष्म अपर्याप्त जीवको आश्रय करके असंख्य सूक्ष्म पर्याप्त जीव होते हैं... आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनका निर्माण करनेवाली छ पर्याप्तियां होती है... जन्मांतरसे आकर योनिस्थान में उत्पन्न होनेवाला जीव सर्व प्रथम पुद्गलोंका ग्रहण करनेसे करण बनाता है, और उस करण से हि आहार लेकर खल-रस आदि स्वरूप परिणाम उत्पन्न करता है... इस करण विशेषको आहार पर्याप्ति कहते हैं... इसी प्रकार शेष पांच पर्याप्तिओंमें भी स्वयं समझ लीजीयेगा... एकेंद्रिय जीवोंको आहार, शरीर, इंद्रिय और श्वासोच्छ्वास नामकी चार पर्याप्तियां होती है... इनको जीव अंतमुहूर्त कालमें हि बनाता है... जो चारों पर्याप्तियां पूर्ण करते हैं वे पर्याप्तक... और जो पूर्ण नहिं करते वे अपर्याप्तक जीव है... पृथ्वी हि शरीर है जिन्हें वे पृथ्वीकाय हैं.. जिस प्रकार सूक्ष्म-बादर भेद कहे, वैसे हि प्रसिद्ध प्रकारसे भेद-प्रभेद कहते हैं...