________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-2-1(14) // 1 नि. 73 पृथ्वी, शर्करा (कंकर) रेत, पत्थर, शिला, नमक, क्षार, लोहा, तांबा, पु, सीसा, रूपा, सोना और वज... ये पृथ्वीके 14 भेद 73 वी गाथामें कहा है... नि. 74 हरताल हिंगलोक, मनःशीला, सासक, अंजन, प्रवाल, अभपटलाभ वालुका ये 8 भेद द्वितीय (74 वीं) गाथामें कहे गये है... नि. 75 गोमेद, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष मरकत मसारगल्ल भूतमोचक और इंद्रनील इस (75 वीं) गाथामें दश भेद बताये है... नि. 76 चंद्रकांत वैडुर्य जलकांत और सूर्यकांत यह चार विशिष्ट रत्नोंके भेद कहे गये है... यहां पूर्वकी दो गाथामें सामान्य पृथ्वीके भेद बताये है और अंतिम दो गाथामें मणिरत्नोंके भेद कहे है इस प्रकार 14+8+10+4=36 भेद बादर-खर पृथ्वीकायके हुए.... ___सूक्ष्म एवं बादर भेदसे पृथ्वीकायको कहकर अब वर्णादि भेदसे पृथ्वीके और अधिक भेद कहते हैं... - नि. 77 वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्शक विभागसे संख्यात योनीयां होती है, और एक एक विभागमें पुनः अनेक सहस्र (लाखों) योनियां होती है... शुक्ल आदि पांच वर्ण, तिक्त आदि पांच रस, सुरभि और दुर्गंध ये दो गंध तथा मुदु कर्कश आदि आठ स्पर्श... अब इन एक एक वर्णादिमें भी संख्यात योनीयां होती है... अब संख्यातके अनेक प्रकार होते हैं अतः उन सभीके भिन्न भिन्न संख्या जो हैं वह कहते हैं... जैसे किपृथ्वीकायकी सात लाख योनीयां होती है... पन्नवणा सूत्रमें भी कहा है कि- पर्याप्त पृथ्वीकायके वर्ण गंध रस एवं स्पर्शक भेदसे लाखों योनीयां होती है... पर्याप्त के आधारमें (निश्रामें) अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं... जहां एक पृथ्वीकाय है वहां नियमसे असंख्य पृथ्वीकाय जीव होते हैं... यह बात बादर खर पृथ्वीकायकी हुइ... यहां संवृत योनीवाले पृथ्वीकाय कहे है... वह संवृत योनी भी सचित्त अचित्त