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________________ 114 1 -1-1 - 10 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है / प्रत्येक समय प्रत्येक क्रिया में विवेक एवं ज्ञान के प्रकाश को सामने रखकर गति करता है / वह जीवन का एक भी अमूल्य क्षण व्यर्थ की बातों में नहीं खोता / क्योंकि वह ज्ञान के, विवेक के मूल्य को जानता है और वह यह भी जानता है कि ज्ञान के उज्ज्वल प्रकाश में गति करके ही आत्मा अपने लक्ष्य पर पहुंच सकता है, अपने साध्य को सिद्ध कर सकता वस्तुत: ज्ञान से जीवन ज्योतिर्मय बनता है / आत्मा ज्ञान के प्रकाश में ही अपने संसार परिभ्रमण एवं उससे मुक्त होने के कारण को जान सकती है / संसार में परिभ्रमण करने का कारण कर्म है / कर्म से आबद्ध आत्मा ही विभिन्न क्रियाओं में प्रवृत्त होती है और क्रिया से फिर कर्म का संग्रह होता है / इस तरह जब तक कर्म का अस्तित्व रहता है, तब तक संसार का प्रवाह प्रवहमान रहता है / इसलिए सूत्रकार ने पिछले सूत्र में कर्म-बन्धन की कारणभूत क्रियाओं का परिज्ञान कराया है / क्योंकि उन क्रियाओं एवं उनके परिणामों का सम्ययतया बोध होने पर साधक उनका परित्याग कर सकता है / इसलिए प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि संसार परिभ्रमणा के दुःखों से बचने के लिए साधक को कर्म बन्धन की कारणभूत क्रियाओं के संबन्ध में परिज्ञा-विवेक रखना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र में विवेक का तात्पर्य है- सर्व प्रथम कर्म बन्धन की हेतुभूतक्रियाओं के स्वरूप को समझना और तदनन्तर उनका परित्याग करना / 'तत्थ' इस पद की व्याख्या करते हुए शीलांकाचार्यजी कहते हैं कि- / "तत्र कर्मणि व्यापारे अकार्षमहं, करोमि करिष्यामीत्यात्मपरिणतिस्वभावतया मनोवाक्कायव्यापाररूपे / " अर्थात्- 'तत्र' शब्द- मैंने किया, मैं कर रहा हूं और मैं करूंगा, इस प्रकार की आत्म परिणति के स्वभाव से होने वाला मन, वचन और काया के व्यापार का बोधक है / सामान्यतया यह व्यापार त्रिविध होता है, किन्तु यह कृत, कारित और अनुमोदित से संबद्ध होने के कारण नव प्रकार का बन जाता है और उक्त भेदों को भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों से संबन्धित कर लेने पर इनकी संख्या 27 हो जाती है / इन सभी भेदों का वर्णन पिछले सूत्र में किया जा चुका है / अस्तु 'तत्र' शब्द को क्रिया के 27 भेदों का परिचायक समझना चाहिए / और मुमुक्षु को इन सभी क्रिया-भेदों के व्यापारों में विवेक रखना चाहिए / _ 'भगवता परिण्णा पवेडया' प्रस्तुत वाक्य में प्रयुक्त 'परिण्णा' शब्द परिज्ञा का परिबोधक परिष्कृत है, ओर प्रशस्त ज्ञान का नाम परिज्ञा है / यह परिज्ञा ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा के भेद से दो प्रकार की है / ज्ञ परिज्ञा से कर्मबन्ध की हेतभूत क्रिया का बोध होता है और प्रत्याख्यान परिज्ञा से आत्मा उस पाप-क्रिया का परित्याग करता है।
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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