________________ 1121 -1-1 - 10 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होती हैं और कई जीवों में नहीं भी पाई जाती, परन्तु स्पर्थ इन्द्रिय संसार के सभी जीवों को प्राप्त है / और अन्य इन्द्रियां भी स्पर्श के आश्रित ही हैं इसलिए स्पर्थ इन्द्रिय के आश्रित दुःखों एवं संक्लेशों के संवेदन का उल्लेख किया गया है, और इससे सभी इन्द्रियों के द्वारा संवेदित दुःखों को समझ लेना चाहिए / _ 'संधेइ' इस पाठ के स्थान पर कई प्रतियों में 'संधावइ' (संधावति) पाठ भी उपलब्ध होता है / 'संधेइ' का अर्थ है - प्राप्त करना है और 'संधावइ' का अर्थ होता है - बार-वार गमन करता है / प्रस्तुत सूत्र में इस बात का उल्लेख किया गया है कि अपरिज्ञात कर्मा पुरुष (आत्मा) अनेक योनियों में परिभ्रमण करता है, और विविध दुःखों का संवेदन करता है / योनि-भ्रमण और दुःखों से छुटकारा पाने के लिए जिस प्रकार के विवेक एवं साधना की आवश्यकता होती है, वह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेगें... I सूत्र | // 10 // तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइआ // 10 // II संस्कृत-छाया : तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता // 10 // III शब्दार्थ : तत्थ-इन कर्म समारम्भों के विषय में / खलु-निश्चय ही / भगवता-भगवान ने / परिणा-परिज्ञा, विवेक का / पवेड्या-उपदेश दिया है / . IV सूत्रार्थ : इन कर्म-समारंभके विषयमें परमात्माने परिज्ञा कही है // 10 // v टीका-अनुवाद : तत्र याने उन उन कार्यों में 'मैंने कीया, मैं करता हूं, मैं करुंगा' इस प्रकारके आत्मपरिणामके स्वभावसे मन-वचन-काया स्वरूप कार्योमें भगवान श्री वर्धमान स्वामीजीने परिज्ञान स्वरूप परिज्ञा कही है... यह बात सुधर्मस्वामीजी जंबूस्वामजीको कहते हैं... वह परिज्ञा दो प्रकारकी है... 1. ज्ञ परिज्ञा 2. प्रत्याख्यानपरिज्ञा... . ज्ञ परिज्ञा से जीव यह जानता है कि- सावध योगसे कर्मबंध होता है, ऐसा वीरप्रभुने