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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 1 - 1 - 9 // 109 * इस स्थितिमें यह जीव बहुत प्रकारके बहोत सारे कर्मोको बांधता है, उन कर्मोके उदयमें यह जीव पुनः अग्निमें प्रविष्ट जंतुकी तरह अग्निसे पकता है, शेका जाता है... इस प्रकार विषय सुखको चाहनेवाला यह जीव अज्ञानतासे बार बार कर्म बांधता है और भुगतता है तथा बहोत दुःखवाले अनादिके इस संसारमें भटकता है... इस प्रकार संसार समुद्रमें भटकते हुए इस जीवको मनुष्य जन्म दुर्लभ है क्योंकि- संसार बहुत बडा है, जीवमें अधार्मिकताका संचय है, और कर्म भी ढेर सारे आत्मामें रहे हए है.. आर्यदेश, उत्तम कुल, अच्छा रूप, समृद्धि तथा दीर्घ आयुष्य और आरोग्य तथा साधुओंका समागम, श्रद्धा, धर्मका श्रवण और मतिकी तीक्ष्णता इत्यादि उत्तरोत्तर दुर्लभ दुर्लभतर है... दुर्लभ ऐसे यह सभी प्राप्त होने पर भी मोहनीयकर्मके अधीन इस जीवको कुमतोंसे भरे हुए इस जगतमें जिनोक्त मोक्षमार्ग (श्रमणत्व) दुर्लभ है.... अथवा तो जो यह जीव = पुरुष सभी दिशा और विदिशाओंमे संचरण करता है तथा अनेक प्रकारकी योनीओंमें उत्पन्न होता है और वहां विरूप रूपवाले कठोर स्पर्शोंका संवेदन करता है... वह अविज्ञातकर्मा याने मन-वचन-कायाके व्यापार = क्रियाओंको नहि जाननेवाला जीव, जीवोंको पीडा देनेके कारणसे सावधयोगसे ज्ञानावरणीयादि आठ प्रकारके कर्मोको बांधता है, और उन कर्मोंके उदयसे अनेक प्रकारकी योनीयोंमें विरूप प्रकारके कठोर स्पर्शका अनुभव करता है... यदि ऐसा है, तो अब क्या करना ? इस बातके अनुसंधानमें सत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहेंगे... VI सूत्रसार : "अनेगरूवाओ जोणीओ' इस पाठ में प्रयुक्त “जोणीओ'' पद योनि का बोधक है / टीकाकार ने योनि शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है "यौति मिश्रीभवत्यौदारिकादिशरीरवर्गणापुद्गलैरसुमान् यासु ता योनयः प्राणिनामुत्पत्तिस्थानानि / " अर्थात्- यह जीव औदारिक, वैक्रिय आदि शरीर वर्गणा के पुद्गलों को लेकर जिसमें मिश्रित होता है, संबन्ध करता है, उस स्थान को योनि कहते हैं / दूसरे शब्दों में योनि उत्पत्ति स्थान का नाम है / प्रज्ञापना सूत्र के योनिपद में नव प्रकार की योनि बताई गई है- १-शीत, २-ऊष्ण, 3-शीतोष्ण, ४-सचित्त, ५-अचित्त, ६-सचित्ताचित्त (मिश्रित), ७-संवृत्त, ८-विवृत्त और ९-संवृत्तविवृत्त / इन की अर्थ-विचारणा इस प्रकार है
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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