SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री.राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका म 1 - 1 - 1 - 7 // 101 प्रवाह के रूप में एक रूपता स्पष्ट प्रतीत होती है / हम यह देखते हैं कि वर्तमान भव में आत्मा का शरीर के साथ संबन्ध जुड़ा हुआ है / इस से हम यह भली-भांति जान सकते हैं कि इस भव के पर्व भी आत्मा का किसी अन्य शरीर के साथ संबन्ध था और भविष्य में भी जब तक यह आत्मा संसार में परिभमण करती रहेगी, तब तक किसी न किसी योनि के शरीर के साथ इस का संबन्ध रहेगा ही / इससे त्रिकालवर्ती अनन्त काल एवं अनन्त भवों के धारा प्रवाहिक संबन्ध तथा विभिन्न काल एवं भवों में परिवर्तित अवस्थाओं में भी, आत्मा का एक ही शुद्ध स्वरूप स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है / इस तरह सूत्रकार ने त्रिकालवर्ती क्रियाओं और आत्मा के घनिष्ट संबन्ध को स्पष्ट करने की दृष्टि से क्रियावाद के द्वारा आत्मवाद की स्थापना प्रस्तुत सूत्र में क्रिया के 27 भेदों का विवेचन किया गया है, ये क्रियाएं इतनी ही हैं, न इनसे कम हैं और न अधिक हैं, और वे क्रियाएं कर्म-बन्धन का कारण भी हैं / अतः इस बात को सम्यक्तया जान कर इनसे बचना चाहिए या इनका परित्याग करना चाहिए / इसी * बात का निर्देश, सूत्रकार महर्षि स्वयं हि आगे के सूत्र से करेंगे... I सूत्र // 7 // .. एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति // 7 // II संस्कृत-छाया : एतावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भा परिज्ञातव्या भवन्ति // 7 // III शब्दार्थ : एयावंती सव्वावन्ती - इतने ही सब / लोगंसि - लोक में / कम्मसमारंभा - कर्म बन्धन की हेतु-भूत क्रियायें / परिजाणियव्वा भवन्ति - जाननी चाहिये / IV सूत्रार्थ : लोकमें इतने हि, यह सभी कर्म-समारंभ जानने चाहिये... // 7 // v टीका-अनुवाद : विश्वके सभी जीवोंमें पूर्व निर्दिष्ट 3 x 3 = 9 तीन काल और तीन कारणके दसे नव (9) प्रकारकी हि क्रियाएं होती है, क्योंकि- कोइ भी क्रियाके अंतमें कृ-धातुका प्रयोग होता हि है, इसीलीये इन नव प्रकारकी क्रियाओंमें शेष सभी क्रियाओंका संग्रह हो जाता है, इनके अलावा और कोई भी क्रिया नहिं है...
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy