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________________ 100 // 1-1-1-6 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जाती है / इस से स्पष्ट सिद्ध होता है कि आत्मा परिणामी नित्य है, और त्रिकाल को स्पर्श करती है। यह स्पष्ट देखा जाता है कि कुछ व्यक्ति शक्ति और धन के मद में आसक्त होकर यौवनकाल में दुष्कृत्य एवं अपने से दुर्बल व्यक्तियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं / परन्तु वृद्ध अवस्था में शक्ति का ह्रास हो जाने के कारण वे अपने द्वारा कृत दुष्कृत्यों का स्मरण करके दुःखी होते हैं और पश्चात्ताप करते हुए एवं आंसू बहाते हुये भी नज़र आते है / और उनकी दुर्दशा को देखकर आस-पास में रहनेवाले लोग भी कहने से नहीं चूकते कि- इस भले आदमी ने धन, यौवन और अधिकार के नशे में कभी नहीं सोचा कि- मुझे इन दुष्कृत्यों का फल भी भुगतना पड़ेगा, उसने यह भी कभी नहीं विचारा कि यह क्षणिक शक्तियां नष्ट हो जाएंगी, तब मेरी क्या दशा होगी, उसी का यह परिणाम है / इस से विभिन्न समय में होने वाली त्रिकालवर्ती क्रियाओं का एक-दूसरे काल के साथ स्पष्ट सबन्ध दिखाई देता है / प्रथम समय में वर्तने वाला वर्तमान दूसरे समय में अतीत की स्मृति में बदल जाता है और भविष्य के क्षण धीरे-धीरे क्रमशः वर्तमान के सप में आकर अतीत की स्मृति में विलीन हो जाते हैं / इसी कारण वर्तमान में अतीत की मधुर एवं दुःखद स्मृतियों तथा अनागत काल की योजनाएं बनती हैं; और इन त्रिकालवर्ती क्रियाओं की श्रृंखला को जोड़ने वाली आत्मा सदा एकसप रहती है / वह पर्यायों की दृष्टि से प्रत्येक काल में परिवर्तित होती हुई भी द्रव्य की दृष्टि से एक रूप है / उसकी एक सपता प्रत्येक काल में स्पष्ट प्रतीत होती है, इससे यह सिद्ध होता है कि त्रिकाल वर्ती क्रियाओं में एकीकरण स्थापित करने वाली आत्मा है और वह परिणामी नित्य है / जैसे एक भव में अतीत, वर्तमान एवं अनागत की क्रियाओं के साथ आत्मा का संबन्ध है, उसी तरह अनन्त भवों की क्रियाओं के साथ भी आत्मा का एवं वर्तमान भव से संबन्धित क्रियाओं का संबन्ध है / क्योंकि वर्तमान काल एक समय का है, दूसरे समय ही वह भूत काल हो जाता है, इस तरह अनन्त-अनन्त काल, वर्तमान पर्याय में से अतीत काल की संज्ञा में परिवर्तित हो चुका है और अनागत काल का आने वाला प्रत्येक समय क्रमशः वर्तमान काल की पर्याय को स्पर्श करता हुआ अतीत की स्मृति में विलीन हो रहा है / संसार में अनन्त-अनन्त काल से ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा / क्योंकि अतीत और अनागत काल अनन्त हैं और अनन्त का कभी अन्त नहीं आता / अतः अनन्त भवों के अनन्त काल का भी संसार में परिभ्रमणशील आत्मा से संबन्ध रहा है / जैसे शरीर की बदलती हुई बाल, यौवन एवं वृद्ध अवस्थाओं में उसी एक ही आत्मा का अस्तित्व बना रहता है / उसी तरह अनेक योनियों में परिवर्तित विभिन्न शरीरों की स्थिति में भी उसी एक ही आत्मा का अस्तित्व बना रहा है / वर्तमान की स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि अनन्त काल में किए हुए अनन्त भवों में आत्मा का अस्तित्व रहा है / इससे अनन्त-२ काल के साथ एक धारा
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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