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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-1-4 // 87 है / प्रत्येक आत्मा सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना-साधना करके सिद्धत्व को * प्राप्त कर सकती है / यहां निष्कर्ष यह निकला कि 'सः' और 'अहं' में कोई मौलिक एवं तात्त्विक भेद नहीं है / 'अहं' से ही विकास करके व्यक्ति 'सः' बनता है, या यों कहिए कि आत्मा ही अपने जीवन का विकास करके परमात्म पद को प्राप्त करता है / इसलिए कहा गया कि- 'मैं सिर्फ मैं नहीं हूं' प्रत्युत्त मैं 'वह' हूं जो 'वह परमात्मा है' अर्थात् मेरा स्वरूप परमात्मा के स्वरूप से भिन्न नहीं है / कुछ दार्शनिकों-विचारकों ने यह माना है कि आत्मा और परमात्मा दो तत्त्व हैं और दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं / एक भक्त और दूसरा भगवान् है, एक उपासक है और दूसरा उपास्य है / एक सेवक है और दसरा स्वामी है और यह भेद सदा से चलता आ रहा है और सदा चलता रहेगा / आत्मा सदा आत्मा ही बना रहेगा, वह भक्त बन सकता है परन्तु भगवान् नहीं बन सकता / वह भगवान् की भक्ति करके उसकी कृपा होने पर स्वर्ग के सुख एवं ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता है, परन्तु ईश्वरत्व को नहीं पा सकता / कुछ वैदिक विचारकों ने यह तो माना है कि- वह आत्मा ब्रह्म में समा सकता है और ब्रह्म की इच्छा होने पर फिर से संसार में परिभ्रमण कर सकता है। परन्तु स्वतन्त्र रूप से आत्मा में ईश्वर बनने की सत्ता किसी भी वैदिक परम्परा के विचारक ने स्वीकार नहीं की। उन्हों ने सदा यही कहा कि 'तू तू है और वह वह है' तथा यह 'तू और वह या मैं और वह या आत्मा और परमात्मा' का भेद सदा बना रहेगा / परन्तु जैन दर्शन ने इस बात पर स्वतन्त्र रूप से चिन्तन-मनन किया है / जैनों ने स्पष्ट रूप से कहा कि आत्मा का स्वरूप न तो परमात्म स्वरूप से सर्वथा भिन्न ही है और न वह परमात्मा या ब्रह्म का अंश ही है / उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व . है / कर्म से आबद्ध होने के कारण वह परमात्मा से भिन्न प्रतीत होती है, परन्तु उसमें भी परमात्मा बनने की शक्ति है / इसलिए जैनों ने स्पष्ट भाषा में कहा कि आत्मन् !- 'तू तू नहीं, किन्तु तू वह है' अर्थात् 'तू' केवल संसार में परिभ्रमण करनेवाली आत्मा ही नहीं है. बल्कि पुरुषार्थ के द्वारा कर्म बन्धन को तोड़ कर परमात्मा भी बन सकती है / इसलिए तू अपने को उस रूप में देख / यही 'अहम्' से 'सः' बनने को या आत्मा से परमात्मा बनने की साधना का या 'सोऽहम्' का चिन्तन मनन एवं आराधना करने का एक मार्ग है / जैन दर्शन का विश्वास है कि प्रत्येक भव्य आत्मा में परमात्मा बनने की योग्यता है। यथोचित साधन-सामग्री के उपलब्ध होने पर आत्मा सम्यक् पुरुषार्थ करके परमात्म पद को पा सकता है / आगमों में बड़े विस्तार के साथ साधनों का वर्णन किया गया है / साधना के लिए अनेक साधन बताए गए हैं / उन साधनों में 'सोऽहं' का ध्यान, चिन्तन-मनन, अर्थ___ विचारणा एवं मन्त्र जाप भी एक साधन है / साधना के पथ पर गतिशील साधक को आत्म
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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