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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1-1-3 73 "कुछ नहि है" ऐसा बोलनेवाला अप्रमाण (अमान्य) होता है, प्रतिषेधक और प्रतिषेध दोनो हि यदि शून्य हो तो फिर इस जगतमें अब क्या रहा ? यदि कुछ भी नहिं है तब इस जगतमें जहि ऐसा न कहने पर भी सभी वस्तुओं का अभाव सिद्ध हुआ... इस प्रकार शेष मतवालोंका भी यहां यथासंभव निराकरण स्वयं हि समझ लीजीयेगा... इस प्रकार यहां आनुसंगिक 363 पाखंडीओंकी मान्यता संक्षेपमें कही... ___ अब प्रस्तुत विषयको लेकर कहते हैं कि- इस प्रकार कितनेक लोगोंको ऐसी समझ नहिं होती, ऐसे कहनेसे यह बात सिद्ध होती है कि- कितनेक लोगोंको ऐसी संज्ञा = समझ होती भी है... उसमें भी हर कोई जीवको सामान्यसे आहारादि संज्ञाएं तो सिद्ध है हि... किंतु यह समझ आत्माके विषयमें असमर्थ होनेसे विशिष्ट संज्ञा = समझका हि यहां प्रस्ताव है, और वह कितनेक लोगोंको हि होती है, और यह समझ हि, जन्मांतरमें जानेवाले आत्माके स्पष्ट कथन में उपयोगी बनती है इसीलीये सामान्य संज्ञाको न कहते हुए विशिष्ट संज्ञाके कारणों को सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने वाले दर्शनों का यह विश्वास हैं कि संसारी आत्मा अनादि काल से कर्म से आबद्ध होने के कारण अनन्त-अनन्त काल से जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान हैं / कर्म के आवरण के कारण ही यह अपने अन्दर स्थित अनन्त शक्तियों के भण्डार को देख नहीं पाती है / कई एक आत्माओं पर ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण कभी-कभी इतना गहरा छा जाता है कि उन्हें अपने अस्तित्व तक का भी परिबोध नहीं होता / उस समय वह यह भी नहीं जानता कि मैं उत्पत्तिशील एक गति से दूसरी गति में जन्म लेने वाला, विभिन्न योनियों में विभिन्न शरीरों को धारण करने वाला हं या नहीं ? इस जन्म के पहले भी मेरा अस्तित्व था या नहीं ? यदी था तो मैं किस योनि या गति में था ? मैं यहां से अपने आयुष्य कर्म को भोगकर भविष्य में कहां जाऊंगा ? किस योनि में उत्पन्न होऊंगा ? ज्ञानावरणीय कर्म के प्रगाढ़ आवरण से आवृत्त यह आत्माएं उक्त बातों को नहीं जान पाती, उक्त जीवों की इसी अबोध दशा को सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में अभिव्यक्त किया संसार में दिखाई देने वाले प्राणियों में आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं अथवा यों कहिए कि आत्मा के अस्तित्व और नास्तित्व का प्रश्न दार्शनिकों में पुरातन काल से चला आ रहा है / जबकि आत्मा को चेतन तो सभी मानते हैं-यहां तक कि चार्वाक जैसे नास्तिक भी उस को चेतन मानते है / परन्तु, दार्शनिकों में मतभेद इस बात का है कि आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है या नहीं ? कुछ विचारक पांच भूतों के मिलन से चेतना का प्रादुर्भाव मानते हैं और
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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