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________________ 44 // 1-1 - 1 - 1 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किस रूप में हुआ ? किसने किया ? कब किया ? और कैसे किया तो जैनागमों की आदि भी स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है / इसलिए कहा गया कि "तप-नियम और ज्ञानमय वृक्ष के उपर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी तीर्थंकर-केवली भगवान भव्य जनों के बोध के लिए ज्ञानकुसुम की वृष्टि करते हैं / गणधर अपने बुद्धि पटल में उन समस्त कुसुमों को झेलकर द्वादशाङ्ग रूप प्रवचन माला गून्यते हैं / " इस तरह “जैनागम कर्तृत्व रहित अनादि अनन्त भी हैं और कर्ता की अपेक्षा से आदि सहित भी हैं" / का इस सूत्र में सुन्दर समन्वय हो जाता है और आचार्य हेमचन्द्र का यह विचार पूर्णतया चरितार्थ होता है “आदीपमाव्योम समस्वभावं, स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु" / इससे स्पष्ट हो गया कि स्याद्वाद की भाषा में विरोध खड़ा होने को कहीं भी अवकाश नहीं हैं / अनन्त तीर्थंकरों में रही हुई केवल ज्ञान की एकसपता के कारण आगम अनादि काल से हैं, उनका उद्गम स्थान ढूण्ढना दुष्कर ही नहीं, असंभव है और वर्तमान में विद्यमान आगम के उपदेष्टा की दृष्टि से सोचते हैं, तो उसकी आदि है / क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध आगम के अर्थरूप से उपदेष्टा भगवान महावीर हैं / उनके प्रवचन को नव गणधरों ने सूत्ररूप से गून्या था / ययोंकि आगम में ऐसा बताया गया है कि भगवान महावीर के ग्यारह गणधर और नव गण थे / अन्य गणधरों की शिष्य परम्परा का प्रवाह आगे चला नहीं / भगवान महावीर के बाद पञ्चम गणधर सुधर्मा स्वामी की ही शिष्य परम्परा चालू रही / अत: वर्तमान में सुधर्मा स्वामी द्वारा सूत्ररूप में रचित आगम ही उपलब्ध होते हैं / अतः प्रस्तुत आगम का भगवान महावीर ने अर्थ रूप से उपदेश दिया था, और आर्य सुधर्मा स्वामी ने उसे सूत्र रूप से गून्था था / इस तरह 'अक्खाय' इस पद से आगमों की नित्यता को प्रकट किया है / परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आगम कूटस्थ नित्य नहीं हैं / क्योंकि हम इस बात को पहिले ही बता चूके हैं कि जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु पर अनेकान्त या स्याद्वाद की दृष्टि से सोचता-विचारता है / यहां एकान्तवाद को कोई स्थान नहीं है / क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेक धर्म युक्त है / उसमें उत्पाद, व्यय, और धौव्य तीनों अवस्थाएं स्थित हैं / इनमें विरोध जैसी कोई बात नहीं है / हम प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं, अनुभव करते हैं कि स्वर्ण को गला कर उसका कंगन बना लेते हैं, फिर कंगन को तुड़वाकर बटन या अंगूठी या और कुछ आभूषण बना लेते हैं / इस तरह प्रत्येक बार वस्तु के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है / एक स्वरूप का विनाश होता है तो दूसरे स्वरूप का निर्माण होता है, परन्तु पूर्व एवं उत्तर की दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण अपने रूप में सदा स्थित रहता है / यही स्थिति प्रत्येक वस्तु की है। द्रव्य रूप से प्रत्येक वस्तु सदा स्थित रहती है तो पर्याय रूप से उसमें सदा परिवर्तन होता
SR No.004435
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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