________________ दार्शनिक दिव्यावलोकन दृढ़ विद्वत्ता का परिचय देता है। जैसे “ललित विस्तरा” ग्रन्थ में आचार्य श्री भक्तिमान् बनकर स्याद्वाद सिद्धान्त की रूपरेखा से परमात्म रहस्य को प्रगटित किया। सिद्धर्षि जैसे बौद्धों के उहापोह में ऊर्जावान् होकर श्रमण-संस्कृति से बिछुड़ते जा रहे थे। अपने को अपना व्यक्ति बिछुड़ा हुआ रुचिकर नहीं लगता तब इन्होंने “नमुत्थुणं' जैसे प्रचलित परमात्मस्तव पर अपनी आत्मश्रद्धा को भक्तिमयी भावना से प्रस्तुत करने में सम्पूर्ण प्रज्ञावान् बनें। यह एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें भक्तिज्ञान को समन्वित रूप से शास्त्र में रखते हुए अपने आपको एक ऐसा आकर्षक उत्तम दार्शनिक सिद्ध किया, जिससे ‘सिद्धर्षि' को प्रतिबोध दिये बिना ही "ललितविस्तरा' के पठन से ही पुनरावर्तन करवा दिया। ____ हरिभद्र की लेखनी में प्रतिबोध प्रसारण इतना हीं मिलेगा जितना कि स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन निर्प्रतिरोध में स्पष्ट दिखेगा। “सर्वज्ञसिद्धि” जैसे ग्रन्थ में अपने आपको एक अकिंचन ज्ञात कराते हुए सुबोध व्यक्तियों को सराहनीय कहते है। सुबोध वही है जो कृपालु करुणालु होकर जीवन - प्रवृत्ति में लगे रहें, साथ में महामोह से पराजित व्यक्तियों को अनर्थ से बचाते हुए अरिहंत के अभिमत को सुनाते रहे समझाते रहे, और उनका आत्म-कल्याण करने का संकल्प रखते रहे। महामोहाभिभूताना-मित्यनर्थो महान् यतः। अतस्तत्त्वविदां तेषु कृपाऽऽवश्यं प्रवर्तते // 82 महामोह से पराजित बने हुए व्यक्तियों को अनर्थ महान् होता है इसलिए तत्त्ववेत्ताओं को उन जीवों पर अवश्य ही कृपालु रहने का भाव बनाना चाहिए। आचार्य हरिभद्र दार्शनिक पक्षको तर्कों के तारों से नहीं झगड़ते हुए करुणा के भावों से विभोर बनाने का व्यवसाय करते है। यह उनकी एक अलौकिक दार्शनिकता है। उनकी विद्वत्ताने प्रतिस्पर्धी होकर प्रतिपक्ष को उपालम्भित करने का अपना आशय कहीं पर अभिव्यक्त नहीं किया।अपितु सभी को सस्नेह सद्भाव से समादर देते हुए सबके सुख में अपना आत्मसुख देखा। यह उनकी महोपकारी दार्शनिकता है। प्रायः करके दार्शनिक पक्ष चर्चालु होते हैं परन्तु परहित सम्पादन में शिथिल पाये जाते हैं। आचार्य हरिभद्र का दार्शनिक पक्ष चर्चालु होता हुआ भी परहित परायण में सदैव पुरोगामी रहा है। ___ श्रमण को सदैव योगमार्ग से जीवन जीने का अधिकार प्रारम्भ से मिला है। इस योग दर्शन पर आचार्य हरिभद्रने अपना संलेखन बहुत ही विस्तृत कर अपने को अध्यात्मयोगी बनाने का एक उपाय आविष्कृत किया है। योग को इतना पुरातन कहकर उनकी प्राचीनता प्रगट की है, योग पर महर्षि पतञ्जलि जैसे पर पुरुषोंका समुल्लेख करने में आचार्य हरिभद्र ने सौहार्दशील चरित्र रखा है। इस प्रकार योग की परम्पराओं का प्रामाणिक प्रस्तुतिकरण उनके योग-ग्रन्थों में सदैव सम्माननीय रहा है, अतः ये योग परम्परा के एक परमज्ञाता रूप में अपने वाङ्मय में अवतरित होकर योगानुशासन की पद्धति को अजरामर पद दे दिया। योग विद्या चिरन्तन है उसको पुनः [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIA / प्रथम अध्याय | 38