________________ - प्रबन्ध-कोशकारने आचार्य हरिभद्र के शिष्य के रूप में सिद्धर्षिगणि का भी उल्लेख किया है। वह इस प्रकार श्रीमालनगर (भीनमाल) नगर में कोई धनवान जैन श्रेष्ठि चातुर्मास में परिवार सहित वंदन करने जाते हुए सिद्ध नामके राजपुत्र द्युतकार युवान को देयनकपद के विषय में निर्दय द्यूतकारों के द्वारा गड्ढे में गिराते हुए देखा। कृपा से उसके देय को देकर उसको छुडाया, घर ले आये, भोजन करवाया और शादी भी कर दी, लेकिन लेख्य लेख के लेखन की परवशता से वह रात्रि में बहुत देरी से आता था। अत्यंत जागने से सासू और पत्नी अतिशय निर्विण्ण हो गये। पत्नी ने सासु से कहा हे माता ! आपके पुत्र को समझाओ, जिससे रात्रि में शीघ्र घर आये। माता ने कहा 'बेटा रात्रि में जल्दी घर आना।' सिद्ध ने कहा - माता ! जिस स्वामि ने मुझे सर्वस्वदान एवं जीवितव्यदान दिया है उसके आदेश को अन्यथा कैसे कर सकता हूँ। माता चुप हो गई। एक बार सासु और पत्नी विचार करके निश्चय किया कि अब देरी से आये तो दरवाजा नहीं खोलना। दूसरे दिन भी रात्रि में वह बहुत देरी से आया और दरवाजे को खटखटाया, वे दोनों नहीं बोली। उसने क्रोधित होकर कहा- द्वार क्यों नहीं खोलती? पूर्व मन्त्रणा के अनुसार उन दोनों ने कहा-'जिस स्थान पर द्वार खुले हो वहाँ चले जाओ।' यह सुनकर क्रोधित होकर चतुष्पथ में चला गया। वहाँ खुले द्वार में प्रवेश करते हुए सूरिमन्त्र के जाप में तत्पर आचार्य श्री हरिभद्र को देखा। चान्दनी रात्रि में गुरु ने योग्य जानकर उपदेश दिया। उपदेश से बोधित उसने व्रत स्वीकार किया। विद्यावान् एवं दिव्य कवित्व शक्ति से युक्त उसने हंस और परमहंस के समान विशेष तर्को को जानने की इच्छा से बोद्धों के पास जाने की जिज्ञासा गुरु के समक्ष प्रगट की और कहा मुझे बौद्धों के पास भेजो। गुरु ने कहा वहाँ जाना योग्य नहीं है / तुम्हारा मन उनके तर्को से विचलित हो जायेगा। पुन: गुरु जब वे नहीं माने और जाने के लिए तैयार हुए तब कहा-जो तुम्हारा मन परावर्त हो जाए तो हमारा दिया हुआ वेश यहाँ आकर हमे दे देना। उसने स्वीकार किया। वह वहाँ जाकर अध्ययन करने लगा। बौद्धों के सुधारित तर्कों से उसका मन चलित हो गया। बौद्ध दीक्षा ले ली। वेश देने के लिए हरिभद्रसूरि के पास आया। बौद्धाचार्य ने भी कहा उनसे वाद हुए तुम्हारा मन जित लिया जाय, तो वेश देने के लिए यहाँ आना। आचार्यश्री के द्वारा तर्कों से उसे समझाया और स्थिर किया परन्तु वेश देने के लिए बौद्धो के पास गया, पुन: बौद्ध तर्कोंसे मन चलित बना और आ. हरिभद्र के पास वेश देने आया। यह क्रम 21 बार चला। अन्त के 22 वे समय में गुरु ने विचारा अब तर्कोंसे इसे नहीं समझाया जा सकता, अब बिचारा मिथ्यात्व के गहन अंधकार में आयुः क्षय करके दीर्घ भव भ्रमण करेगा। अब तो उसे वाद से नही सत्य स्वरूप से स्थिर करना होगा। ऐसा विचार करके आचार्य श्री ने "ललित विस्तरा" चैत्यवंदन वृत्ति की सतर्क रचना की। उसके आगमन के समय में पुस्तिका को पादपीठ पर रखकर गुरु बाहर चले गये। उस पुस्तक के परामर्श से उसको सम्यक बोध प्राप्त हुआ। वह प्रसन्नता से झूम उठा और स्थिर मन वाला हो गया, उसके मुख से यह उद्गार निकल पड़े नमोऽस्तु हरिभद्राय तस्मै प्रवरसूरये। मदर्थं निर्मिता येन वृत्तिललित विस्तरा // 29 | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIII 4 प्रथम अध्याय | 13 1