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________________ उपसंहार आचार्य हरिभद्र का व्यक्तित्व अनेक विशेषताओं से विशिष्ट एवं विख्यात है तो उनका कृतित्व कोविदता और कर्मठता से आलोकित है। उनकी कृतियों में उनकी कुशाग्र बुद्धि एवं हृदय स्पर्श दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि उनका भौतिक देह कालक्रम से विलीन हो गया परन्तु उनकी कृतियाँ उनकी विद्यमानता की परिचायिका है। वे एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे, जिनका धन आज भी उनके कृतित्व से सुलभ हो रहा है। उनका व्यक्तित्व वाङ्मय की वसुधा पर वन्दनीय बना है। __ शौर्यशील की जन्मभूमि राजस्थान की वसुंधरा है। आचार्य हरिभद्र जैसे निर्ग्रन्थ नरपुंगवों की माता बनने का सौभाग्य राजस्थान की भूमि को मिला है। उसमें चित्तौड़गढ़ को जन्मभूमि का गौरव देकर आचार्य हरिभद्र ने शाश्वत यश को जीवनदान दिया है। ___ जन्म से ही शिक्षा-संस्कारों की प्रणाली को पवित्र मानने वाले ब्राह्मण कुल को हरिभद्रने सम्पूज्य बनाकर वैदिक वाङ्मय का अगाध अध्ययन किया और ब्राह्मण कुल के शिक्षा संस्कारों को आत्मसात् करके आर्हत् पथ पर प्रस्थित हो गये। श्रमण जीवन में रहते हुए बौद्ध वाङ्मय, जैन वाङ्मय का तलस्पर्शी अभ्यास कर अनूठे, अनुभवी लेखक भी बने, वक्ता भी हुए। आठवीं शताब्दी में इनके अस्तित्व के कुछ वाङ्मय उद्धरण उपलब्ध हो रहे है। पुरातन परिपाटी से ये छठी शताब्दी में भी गिने गए है। महापुरुष समयातीत होते है। केवल काल गणना कोविदों की अभ्यासमयी इतिहास कला है। प्रतिज्ञाबद्ध जीवन प्रोन्नत रखने का दृढ-संकल्प आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व में मिलता है। ब्राह्मण होकर एक प्रतिज्ञाबद्ध नियम से तत्काल श्रमण बन जाते है। ऐसा उदाहरण इनके सिवाय अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है। क्योंकि उन्होंने ब्राह्मणत्व में जो राजकीय सम्मान पाया था उसको नगण्य बनाकर निर्ग्रन्थ के राहपर आने में विलम्ब नहीं किया, क्योंकि जिज्ञासा परिवर्तन लाने में पीछे नहीं रहती है। इनके दीक्षा के विषय में मूलभूत महत्तरायाकिनी का योगदान रहा है। वह याकिनी महत्तरा शासन की सेवा में ऐसे सुधी को समर्पित बनाने में सजग रही, इसी सजगता का परिणाम एक दिन यह आया कि आचार्य हरिभद्र को जिनभट्ट का दीक्षा शिष्य बना दिया। दीक्षित मुनि अध्ययन करते-करते अपने आत्मजीवन को अनमोल बनाते एक दिन आचार्य पद के योग्य बन जाते है, शिष्य परिवार सहित। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII IIIIIA उपसंहार 472
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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